पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: बढ़ते शहरीकरण से पर्यावरण को खतरा
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: January 31, 2020 05:49 AM2020-01-31T05:49:20+5:302020-01-31T05:49:20+5:30
यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है. विस्तार-शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि. लेकिन बारीकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है.
लगभग एक साल से दिल्ली से सटा गाजियाबाद देश के सबसे दूषित नगरों में अव्वल बना है. दिल्ली तो है ही जल-जमीन और वायु के दूषित होने का विश्वव्यापी कुख्यात स्थान. यदि गंभीरता से इस बात का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में पलायन व रेाजगार के लिए पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी व इसके चलते उसका अनियोजित विकास हुआ, वहां के हवा-पानी में ज्यादा जहर पाया जा रहा है. असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है. बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं.
यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है. विस्तार-शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि. लेकिन बारीकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है. नदी के पाट को घटा कर बने रिवर फ्रंट हों या तालाब को मिट्टी से भर कर बनाई गई कालोनियां, तात्कालिक रूप से तो सुख देती हैं. लेकिन प्रकृति के विपरीत जाना इंसान के लिए संभव नहीं है और उसके दुष्परिणाम कुछ ही दिनों में सामने आ जाते हैं. पीने के जल का संकट, बरसात में जलभराव, आबादी और यातायात बढ़ने से उपजने वाले प्राण वायु का जहरीला होना आदि.
शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं. नदी थी खेती के लिए मछली के लिए , दैनिक कार्यो के लिए , ना कि उसमें गंदगी बहाने के लिए. गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरीचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है. दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है.
केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, शहर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं. लोग अपनों से मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं. तो क्या लोग गांव में ही रहें ? क्या विकास की उम्मीद न करें ? ऐसे कई सवाल शहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुना होते देखने वाले कर सकते हैं. असल में हमें अपने विकास की अवधारणा को ही बदलना होगा- इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवायापन का हक मिले, यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो शहर की ओर लोगों का पलायन रुकेगा. इससे हमारी धरती को कुछ राहत मिलेगी