नजरिया: सरकार की आलोचना का मतलब देशद्रोह नहीं
By विश्वनाथ सचदेव | Published: March 10, 2019 07:51 AM2019-03-10T07:51:37+5:302019-03-10T07:51:37+5:30
सरकार देश चलाती है, पर सरकार देश नहीं होती। इसलिए सरकार का विरोध देश का विरोध नहीं होता। आज यदि कोई नागरिक वर्तमान सरकार का विरोध करता है तो वह राज-द्रोह हो सकता है राष्ट्र-द्रोह नहीं।
स्वतंत्न भारत के इतिहास के एक काले अध्याय का नाम है आपातकाल। इसके बाद हमने संविधान में संशोधन करके ऐसी व्यवस्था कर ली कि फिर कोई शासक तानाशाह न बन सके। हमारा कोई नेता स्वयं को तानाशाह न समङो। पर ऐसी कोई भी व्यवस्था तानाशाही का ‘सुख’ भोगने की प्रवृत्ति पर तो अंकुश नहीं लगा सकती। यही प्रवृत्ति शासक को सर्वशक्तिमान होने का भ्रम देती है, और इसी के चलते उसमें अपने आप को देश का पर्याय समझने का भाव जगता है। तब उसे लगने लगता है कि जो उसके किए-कहे पर सवाल उठाते हैं वे देशद्रोही हैं। जबकि हकीकत यह है कि शासक के किए पर सवाल उठाने वाला व्यक्ति सिर्फ अपने जनतांत्रिक कर्तव्य का ही पालन कर रहा होता है।
सरकार देश चलाती है, पर सरकार देश नहीं होती। इसलिए सरकार का विरोध देश का विरोध नहीं होता। आज यदि कोई नागरिक वर्तमान सरकार का विरोध करता है तो वह राज-द्रोह हो सकता है राष्ट्र-द्रोह नहीं।लेकिन सत्तारूढ़ पक्ष के नेता विपक्ष को और उन सबको किसी भी प्रकार की आलोचना करने के लिए देशद्रोही बता रहे हैं, जो सरकार की मंशा अथवा उसके द्वारा की गई कार्रवाई पर सवाल उठा रहे हैं। जनतंत्न में सवाल उठाना हर नागरिक का कर्तव्य है, और अधिकार भी।
कुछ अर्सा पहले जब हमारे सैनिकों ने पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई की थी और शत्नु के क्षेत्न में आतंकी अड्डे नष्ट किए थे तो विपक्ष ने उस कार्रवाई के औचित्य और परिणामों को लेकर कुछ सवाल भी उठाए थे। सत्तारूढ़ पक्ष ने तब विपक्ष पर यह आरोप लगा दिया था कि वह हमारी सेना की ईमानदारी पर अविश्वास कर रहा है। अब फिर, जबकि सरकार पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर हल्ला बोलने के दावे पेश कर रही है, और सत्तारूढ़ भाजपा के अध्यक्ष ढाई सौ आतंकियों के मारे जाने का दावा कर रहे हैं, विपक्ष इस संदर्भ में उठी शंकाओं का समाधान चाह रहा है। पर समाधान करने के बजाय, सवाल उठाने वाले हर पक्ष को देशद्रोही ठहराने के प्रयास हो रहे हैं। विपक्ष के किसी भी नेता ने अबतक हमारी सेना की योग्यता-क्षमता पर कोई सवाल नहीं उठाया है। हां, सरकार की मंशा जरूर संदेह के घेरे में है। ऐसी स्थिति में बेहतर यही होता कि प्रधानमंत्नी सर्वदलीय बैठक बुलाकर स्थिति को स्पष्ट करते, विपक्ष को विश्वास में लेते। जनतांत्रिक परंपराओं का यही तकाजा था। पर प्रधानमंत्नी उस सर्वदलीय बैठक में आए ही नहीं।
पिछले कुछ वर्षो में हमने देखा है कि देश में देशद्रोह का आरोप लगाने की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है। भारतीय दंड संहिता में एक धारा है-124 ए। इसे देशद्रोह के आरोप में लागू किया जाता है। कुछ ही अर्सा पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्नों पर यह धारा लागू की गई। इस धारा के अंतर्गत दस छात्नों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया। उनका अपराध यह था कि ‘देश-विरोधी नारे’ लगा रहे थे। पिछले साल जून में बिहार के नसीरगंज में आठ लोगों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाया गया था इनमें से पांच आरोपी नाबालिग थे। सन 2017 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर में चार महिलाओं पर इसलिए देशद्रोह का आरोप लगा दिया गया, क्योंकि वे राज्य के मुख्यमंत्नी के काफिले को रोकने की कोशिश कर रही थीं। हमें याद है मेरठ में कुछ विद्यार्थियों को इसलिए देशद्रोही मान लिया गया, क्योंकि वे क्रि केट मैच में पाकिस्तान टीम के खेल की सराहना कर रहे थे। आंकड़े बताते हैं कि सन 2016 में 35 लोगों पर धारा 124ए के अंतर्गत कार्रवाई की गई जबकि 2015 में यह संख्या 30 थी और 2014 में 47। आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि सन 2016 में ‘देशद्रोह’ के 34 मामलों की सुनवाई हुई, जिनमें से सिर्फ एक को दोषी पाया गया।
हमारा उच्चतम न्यायालय एक से अधिक बार स्पष्ट कर चुका है कि मात्न नारेबाजी देशद्रोह के आरोप का कारण नहीं बन सकती। किसी पर देशद्रोह का आरोप तभी लगना चाहिए जब कोई व्यक्ति हिंसा करे या हिंसा भड़काए। न्यायालय यह भी कह चुका है कि किसी सरकार का विरोध देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता। सरकार देश चलाती अवश्य है, पर वह देश होती नहीं।
ज्ञातव्य है कि देशद्रोह की यह धारा 124ए अंग्रेजों ने हम भारतीयों के खिलाफ लागू की थी, और गांधीजी एवं जवाहरलाल नेहरू समेत सैकड़ों नेताओं के खिलाफ इसके अंतर्गत कार्रवाई हुई थी। गांधीजी ने इसे ‘देश के नागरिकों की स्वतंत्नता के दमन का उपकरण’ बताया था और नेहरू ने कहा था, स्वतंत्न भारत के कानून की किताबों में इस ‘घृणित’ धारा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। कहने का मतलब यही है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी नागरिक को देशद्रोही कहना बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम माना जाना चाहिए। सरकार की नीतियों की आलोचना करने या सरकार की नीयत पर सवाल उठाने को देशद्रोह कहने-मानने का अर्थ यही है कि सरकार स्वयं को आलोचनाओं से ऊपर मानती है। यह सोच अजनतांत्रिक है। सवाल उठाने की आजादी को जनतंत्न नागरिक के अधिकार के रूप में देखता है। इस अधिकार की रक्षा जनतंत्न की सार्थकता की शर्त है।