हर आपदा को नहीं माना जाए एक अवसर?, सीमा पर से आरंभ हुए सैन्य संघर्ष की नई परीक्षा और चुनौती के बीच...
By Amitabh Shrivastava | Updated: May 11, 2025 22:01 IST2025-05-11T22:00:22+5:302025-05-11T22:01:09+5:30
किसी को सेना के ऑपरेशन के नाम पर चिंता है तो किसी को सीमा की सच्चाई को जानने की उत्सुकता है.

सांकेतिक फोटो
राजनीति का फितूर और अस्तित्व के संकट से गुजरते राजनेता किसी पल को गंवाना नहीं चाहते हैं. पहलगाम की हिंसक घटना के बाद भारत की आतंक के खिलाफ कार्रवाई जारी है. बीती छह मई की रात से आरंभ संघर्ष की स्थिति पर दुनियाभर की नजर है. जिसका कारण स्पष्ट है कि भारत समेत विश्व के अनेक देश आतंकवाद से प्रभावित हैं. सभी का मानना है कि आतंक की जड़ों को समाप्त करना आवश्यक है. किंतु इस लड़ाई में भारत में कहीं- कहीं राजनीति के अंश भी उभर कर नजर आने लगते हैं. वर्तमान घटनाक्रम में सरकार की ओर से उठाए जा रहे अनेक प्रतिबंधात्मक कदमों के बावजूद बयानबाजी और सोच अपनी-अपनी तरह से सामने आ रही है. किसी को सेना के ऑपरेशन के नाम पर चिंता है तो किसी को सीमा की सच्चाई को जानने की उत्सुकता है.
किसी को भविष्य के चुनावी सुगबुगाहट को लेकर वर्तमान से लाभ लेने की फिक्र है. किसी को सरकार के उठाए गए कदमों पर सवाल उठाने का कोई आसान कारण मिल रहा है. राजनीति का फितूर और अस्तित्व के संकट से गुजरते राजनेता किसी पल को गंवाना नहीं चाहते हैं. उन्हें कोरोना महामारी के बाद हर आपदा में अवसर ढूंढ़ने की आदत होती जा रही है.
भले ही उसके दूरगामी परिणाम मिलें या नहीं. पिछले माह पहलगाम में जब पर्यटकों पर हमला हुआ तो उसमें आतंकवादियों ने अपना साफ संदेश देने का दुस्साहस दिखाया. जिसमें धर्म और रिश्तों को तार-तार करने की साजिश रची गई थी. इतना होने के बावजूद देश के किसी भी स्थान में आम आदमी का संयम नहीं टूटा और परिपक्वता के साथ सरकार के प्रतिकार की प्रतीक्षा की गई.
किंतु तब तक कुछ राजनीतिज्ञों का अपने आप से ही नियंत्रण छूटता रहा. कोई राफेल और नींबू-मिर्च की बात और कोई आतंक के अड्डों की बजाए आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करता रहा. सर्वविदित है कि कोई भी सरकार सामरिक मामलों में अपने सुरक्षा बलों पर भरोसा कर उन्हें कार्रवाई की छूट प्रदान करती है.
वे तय करते हैं कि किस तरह परिस्थिति से निपटा जाए. ताजा मामले में व्यवस्था अनुसार कार्रवाई चल रही है और उसकी जानकारी साझा की जा रही है. मगर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) प्रमुख राज ठाकरे कह रहे हैं कि पाकिस्तान के साथ युद्ध की आवश्यकता नहीं है. एक तरफ पाकिस्तान को दुश्मन देश मानना और उसके सभी इरादों को नेस्तनाबूद करने के सपने देखना और दूसरी तरफ कार्रवाई के दौरान सवाल खड़े करना आश्चर्यजनक है. हालांकि इस दृष्टिकोण को मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने ठुकरा भी दिया है.
किंतु सैन्य कदमों की सराहना और मनोबल बढ़ाने की बात तो दूर राजनीति में अलग पहचान बनाने के लिए अलग राग अलापना कहां तक उचित ठहराया जा सकता है. इसे किस सीमा तक स्वतंत्र विचारों की श्रेणी में लिया जा सकता है? कुछ इसी प्रकार कांग्रेस नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने ऑपरेशन ‘सिंदूर’ के नाम पर उंगली उठाई है.
वह मानते हैं कि यह सैन्य कार्रवाई की आड़ में भावनात्मक वातावरण बनने का प्रयास है. मगर विचारणीय यह है कि जब पहलगाम में देश के आधे से अधिक राज्यों के लोग मारे जाते हैं और आतंकवादी धर्म पूछकर महिलाओं के सामने उनके पति की हत्या करते हैं, तब हर देशवासी का घटना से एक संवेदनशील रिश्ता बनता है.
जिसकी अपेक्षा यही बनती है कि महिलाओं को न्याय मिलना चाहिए. यदि देश की भावना को देखकर कोई अभियान चलाया जाता है तो उसमें सरकार की चिंता और राजनीतिक स्वार्थ क्यों ढूंढा जाना चाहिए? यदि कोई कार्य सार्थक परिणाम देने के लिए किया जा रहा है तो उसे समर्थन दिया जाना चाहिए. उस पर सवाल खड़े कर अपनी कॉलर को ऊंची करने की बजाए परिस्थितियों के साथ चलना चाहिए.
कुछ हद तक सुबह-सुबह केंद्र और राज्य सरकार की आलोचना का भोंपू बजाने वाले सांसद संजय राऊत ने बदलती परिस्थितियों को देखकर अपने सुरों को नियंत्रण में कर लिया है. पहलगाम के बाद उनकी आलोचना में काफी उत्साह था, लेकिन देश का माहौल देखते हुए उन्होंने अपने आप को संतुलित कर लिया. शायद बाकी नेताओं को यह बात समझने में देर लगी है.
संभव है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद स्थानीय निकायों के चुनावों का रास्ता साफ होने के बाद आने वाले महीनों में राजनीतिक विसात फिर बिछेगी, जिस पर हार-जीत के लिए दम लगाया जाएगा. किंतु विपरीत परिस्थिति भुनाकर चुनावी सफलता के सपने देखना अनुचित है. वर्तमान परिदृश्य देश की चिंताओं से जुड़ा है. आतंकवाद हर सरकार के कार्यकाल में देखा गया है.
उसमें हमेशा बेगुनाह लोगों ने जान गंवाई है. अब यदि उसके खिलाफ संघर्ष कोई रूप लेता है तो उसे साथ देना चाहिए. उसमें राजनीतिक लाभ-हानि देखना असंवेदनशीलता का परिचय है. जब लड़ाई धर्म-जाति-प्रांत आदि से ऊपर से उठकर हो रही हो तो उसमें निजी लक्ष्य सामने नहीं लाए जा सकते हैं. दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में हर आपदा को अवसर मानने की भूल अक्सर हो जाती है.
लेकिन अब आम समझ-बूझ का स्तर उतना कमजोर नहीं है, जितना अनेक राजनेता समझते हैं. समस्याओं से लेकर चिंताओं तक और क्षमताओं से लेकर प्रयासों तक की जानकारी से लोगों का अवगत होना आश्चर्यजनक नहीं माना जा सकता है. फिर भी राजनीति हर दौर को अपनी हवा में बहाने की कोशिश करती रहती है.
सैन्य कार्रवाई सरकार के निर्णय और इच्छाशक्ति पर निर्भर होती है. उसमें सत्ताधारी दल सभी दलों को विश्वास में लेते हैं और उनके सुझावों को स्वीकार करते हैं. उसमें आलोचना को कोई स्थान नहीं रहता है. वैचारिक स्वतंत्रता में संयम अपेक्षित होता है. किंतु देश-प्रदेश के अनेक नेताओं में कुछ अपेक्षित गुणों का अभाव दुर्भाग्यपूर्ण है. देश के समक्ष संघर्ष के क्षणों को अवसर मानना शर्मनाक ही है.