एनके सिंह का ब्लॉग: चुनाव विश्लेषण में सामने आते नए मसले

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 17, 2019 12:00 PM2019-03-17T12:00:58+5:302019-03-17T12:00:58+5:30

युवा ‘भारत माता की जय’ में हाथ तो उठा रहे हैं पर बेरोजगारी से ग्रस्त वे हाथ वोटिंग मशीन का बटन भी उसी भाव में दबाएंगे, यह स्पष्ट नहीं है। दलितों के पैर धोने का प्रधानमंत्नी का टीवी चैनलों का विजुअल उन घटनाओं पर भारी नहीं पड़ पा रहा है, जिनमें  ‘मदांध’ ठाकुर साहबान ने शादी में घोड़ी पर चढ़ने की हिमाकत करने वाले दलित दूल्हों को चेतावनी दी कि बारात उनके घर के सामने से नहीं निकाली जाए।

NK Singh's blog: new issues arising in the election analysis | एनके सिंह का ब्लॉग: चुनाव विश्लेषण में सामने आते नए मसले

एनके सिंह का ब्लॉग: चुनाव विश्लेषण में सामने आते नए मसले

परंपरागत फॉर्मेट में 2019 के आम चुनाव की स्थिति का विश्लेषण गलत निष्कर्ष दे सकता है। चार नए कारक हैं जो इस चुनाव के नतीजों पर गुपचुप लेकिन प्रभावी तरीके से असर डालेंगे। वे हैं कृषि से निराश किसानों का पहली बार दबाव समूह के रूप में उभरना, जाति-आधारित क्षेत्नीय दलों का तालमेल और बढ़ती बेरोजगारी।

लेकिन इनकी काट के रूप में होगा विपक्ष का एकजुट न होना, मोदी के बरअक्स किसी विपक्षी नेता की मकबूलियत का अभाव। यानी एक ओर भोगा हुआ यथार्थ है तो दूसरी ओर भावना। और भावना यथार्थ को लगातार पांच साल नहीं दबा सकती। अगर किसान अपनी उपज की लगातार कम होती कीमतों से नाराज न भी होगा तो जाति वाली क्षेत्नीय पार्टी को वोट करेगा।

प्रकारांतर से अगर एक ओर पुलवामा फिदायीन हमला और प्रतिक्रिया स्वरूप बालाकोट बमबारी-जनित राष्ट्रवाद है, प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के पांच साल का काम (और वादे भी) हैं तो दूसरी ओर देश में पहली बार जाति, उपजाति और धर्म से ऊपर उठ कर किसान एक दबाव समूह के रूप में उभरा है जिसके लक्षण गुजरात चुनाव में मिलने लगे थे।

युवा ‘भारत माता की जय’ में हाथ तो उठा रहे हैं पर बेरोजगारी से ग्रस्त वे हाथ वोटिंग मशीन का बटन भी उसी भाव में दबाएंगे, यह स्पष्ट नहीं है। दलितों के पैर धोने का प्रधानमंत्नी का टीवी चैनलों का विजुअल उन घटनाओं पर भारी नहीं पड़ पा रहा है, जिनमें  ‘मदांध’ ठाकुर साहबान ने शादी में घोड़ी पर चढ़ने की हिमाकत करने वाले दलित दूल्हों को चेतावनी दी कि बारात उनके घर के सामने से नहीं निकाली जाए। उना (गुजरात) में एक दलित पर बेल्ट से लगातार प्रहार का अक्स जेहन में हमेशा के लिए चस्पां हो जाता है जबकि पैर धोने के टीवी विजुअल्स मोदी को अन्य नेताओं के मुकाबले सर्वे में अधिकांश मतदाताओं की पसंद तक ही प्रभाव छोड़ते हैं। 

किसानों के पहली बार दबाव समूह के रूप में उभरने के संकेत गुजरात चुनाव से निकले परिणामों में मिले जब भाजपा ने राज्य के कुल 33 जिलों में से सात में एक भी सीट हासिल नहीं की और आठ में हर जिले में एक-एक। यानी राज्य के 33 में से 15 जिलों (लगभग आधा गुजरात) में मात्न आठ सीटें। ये सभी जिले ग्रामीण बाहुल्य के थे। गुजरात में शहरीकरण 45 प्रतिशत (राष्ट्रीय औसत से 12 प्रतिशत ज्यादा) है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकारों ने कोई बड़ी गलती नहीं की थी और देखा जाए तो विकास के अधिकतर आंकड़े अच्छे संकेत दे रहे थे, खासकर छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में। लेकिन दोनों में किसान और दलित साइलेंट किलर के रूप में उभरे। फसल बीमा योजना पिछले दो सालों में विस्तार की जगह सिकुड़ती गई और वह भी गिरावट वाले दस बड़े राज्यों में आठ भाजपा-शासित हैं। यानी मोदी का फ्लैगशिप कार्यक्रम उन्हीं के मुख्यमंत्रियों की उदासीनता का शिकार बना।

थोक मूल्य सूचकांक में प्राथमिक खाद्य पदार्थ यानी किसानों को मिलने वाला मूल्य पिछले 18 सालों में तुलनात्मक रूप से सबसे कम इस वर्ष रहा। एनएसएसओ के आंकड़े जो केंद्र ने रिलीज नहीं किए, के मुताबिक पिछले 45 सालों में बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा 2017-18 में रही।

उत्तर प्रदेश में मायावती-अखिलेश समझौता (यानी बसपा- सपा गठजोड़) 26 साल पहले सन 1993 में हुए कांशीराम-मुलायम समझौते से अलग है। उस समय ग्रामीण सामाजिक संरचना में पिछड़ा वर्ग शोषक हुआ करता था और दलित शोषित क्योंकि खेती मानव-श्रम पर आधारित थी। जबकि आज 93 प्रतिशत खेती मशीनों द्वारा की जाती है और फिर पिछड़ा वर्ग आरक्षण के कारण सरकारी नौकरी पा चुका है या पाने की  फिराक में है, लिहाजा इन तमाम दशकों में शहरों या कस्बों में बस गया है और सवर्णो की तरह खेती बटाई पर दे आराम का जीवन व्यतीत कर रहा है।

ग्रामीण समाज में दलितों और पिछड़ों के बीच दुराव लगभग नहीं के बराबर है। लिहाजा यूपी में न केवल मायावती के दलित वोट सपा में शत-प्रतिशत ट्रांसफर होंगे बल्कि पिछड़ा वर्ग भी बसपा के प्रत्याशी को वोट देंगे।

लेकिन इन सब के साथ एक नकारात्मक पहलू है जो शायद भारत के इतिहास में एक प्रमुख मुद्दा होगा- विपक्ष और खासकर क्षेत्नीय दलों की आत्ममुग्धता। ये छोटे दल उस बात को भूल रहे हैं कि चुनाव मायावती, ममता, अखिलेश, तेजस्वी, चंद्रबाबू को मुख्यमंत्नी चुनने का नहीं है बल्कि 25 लाख करोड़ रु. के बजट वाले देश का प्रधानमंत्नी चुनने का है। इन पांचों नेताओं के दलों द्वारा सन 2014 में जितने वोट हासिल किए गए थे उनसे दूने वोट अकेले कांग्रेस के पास थे जबकि मोदी की लहर हुआ करती थी। लिहाजा भले ही एक बड़ा वर्ग मोदी के वादों पर भरोसा खो चुका हो लेकिन उसे सबल विकल्प अभी भी नहीं मिल पाया है। 

Web Title: NK Singh's blog: new issues arising in the election analysis