पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: अर्थव्यवस्था को संकट से उबारना जरूरी
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 16, 2019 07:13 AM2019-11-16T07:13:48+5:302019-11-16T07:14:30+5:30
जीएसटी और टैक्स में भी सरकारी रिसिप्ट कम हो चुकी है. फिर कॉर्पोरेट को टैक्स में रियायत देने से भी बाजार में रौनक लौटी नहीं है. तो आखरी सवाल यही है कि क्या सरकार रईसों पर वेल्थ टैक्स बढ़ा दे और उस पैसे को किसान-मजदूर और मध्यम तबके की खरीद ताकत को बढ़ाने में लगा दे.
सरकार ने जैसे ही सिंगल यूज प्लास्टिक को घातक माना और प्रतिबंध लगाया वैसे ही चार लाख करोड़ की प्लास्टिक इंडस्ट्री पर काले बादल मंडराने लगे. महज तीन महीने में साढ़े चार लाख नौकरियां इस इंडस्ट्री से जुड़े कामगारों (80 फीसदी कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स) की चली गई. आर्थिक नीतियों ने जो असर 2018 में दिखाना शुरू किया उसका सबसे बुरा असर 2019 में इस तरह उभर कर सामने आया कि आईटी सेक्टर में 56,000 नौकरियां चली गई. खनन के क्षेत्र ने सबसे भयावह स्थिति देखी और 2,64,000 नौकरियां चली गर्इं. ऑटो सेक्टर में 5 लाख नौकरियां चली गई. तो ऑटो पार्ट सेक्टर में 8 से 10 लाख कॉन्ट्रैक्ट कामगारों की नौकरियां चली गई. जो मुंबई सत्ता संघर्ष का केंद्र बनी हुई है वहां रियल इस्टेट से जुड़े रजिस्टर्ड करीब एक लाख दस हजार कामगारों में से सिर्फ 25 से 28 हजार कामगार ही सक्रि य हैं बाकी मुंबई छोड़ अपने गांव लौट रहे हैं क्योंकि काम न होने की वजह से धीरे-धीरे रोजी-रोटी के लाले पड़ने लगे हैं.
बीएसएनएल में पचास पार के कर्मचारियों को वीआरएस यानी वॉलेंटरी रिटायरमेंट का लालच दिया गया है और महज दो हफ्ते में (4 नंवबर से शुरू हुआ) 80 हजार लोगों ने आवेदन भी कर दिया. लेकिन यहां भी ये सवाल अनसुलझा सा है कि 7 हजार करोड़ रु पए बचाने के लिए सरकार वीआरएस तो ले आई लेकिन वीआरएस की रकम भी तो बीएसएनएल के एसेट्स बेच कर सरकार को निकालना है और किसी ने एसेट्स नहीं खरीदे या नहीं बिक पाए तो क्या होगा?
एक तरफ मंहगाई दर बढ़ रही है दूसरी तरफ बैैंक आम लोगों के लिए ब्याज दर लगातार कम कर रही है. कार्यक्रम क्रियान्वयन तथा सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि देश में कुल 1623 प्रोजेक्ट में देरी हो चली है. इससे इन योजनाओं का खर्चा 21 फीसदी बढ़ चला. पहले खर्च 19,33,390.22 करोड़ होना था जो अब बढ़ कर 23,21,502.84 करोड़ हो चुका है. और सबसे बड़ी 355 इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की कुल कीमत में 3 लाख 88 हजार 112 करोड़ का इजाफा हो गया.
खास बात तो यह है कि इन 355 योजनाओं में से 244 योजनाओं में तीन से सात बरस की देरी आ चुकी है. योजनाओं के रु कने की वजह कई हैं लेकिन सबसे बड़ी वजह फंड का नहीं होना है जिससे जमीन पर कब्जा नहीं मिल पा रहा है क्योंकि वहां मुआवजा देने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है. तो कहीं योजनाओं के लिए जरूरी औजार की सप्लाई नहीं हो पा रही है क्योंकि फंड नहीं है. और जब पैसा ही नहीं है तो मजदूर भी रख पाने की स्थिति में सरकार नहीं है. फिर चूंकि ये योजनाएं अलग-अलग मंत्रालयों से जुड़ी हैं लेकिन मौजूदा दौर में जिस तरह योजनाओं के लिए आवंटित पूंजी को केंद्रीकृत किया गया और फंड की कमी को दूर करने के लिए रिजर्व बैंक से भी रु पया निकालने में सरकार ने कोई कोताही नहीं बरती तो ऐसे में स्थिति चौतरफा बिगड़ी है.
असल सवाल यहीं से खड़ा हो रहा है कि अब इकोनॉमी पटरी पर लौटेगी कैसे? एक के बाद एक कर जिस तरह आईएलएंडएफएस ,एनबीएफसी, एचडीआईएल और पीएमसी कोआॅपरेटिव बैंक का खतरा मंडराया और बैंकरप्सी बोर्ड आॅफ इंडिया के दरवाजे पर देश की 2162 कंपनियां पहुंच गई जिसमें सबसे ज्यादा 899 कंपनी मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ी हैं तो सवाल यह भी उठ गया कि पल्ला झाड़ने के लिए जिस देश में खुद को दिवालिया घोषित करना ही सबसे बेहतर हो जाए और दिवालियेपन को ठीक करने के लिए सरकार के पास भी फंड न हो तब क्या होगा. ये लकीर बेहद बारीक है लेकिन अब खुल कर उभर चली है. इसके लिए बेहतरीन उदाहरण रियल इस्टेट में 25 हजार करोड़ के फंड देने के ऐलान में छुपा है.
सरकार ने रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ लिये तो उसमें से 10 हजार करोड़ देने का ऐलान किया था. अब उसमें एसबीआई और एलआईसी के बोर्ड से 15 हजार करोड़ देने पर मुहर लगवा ली. ये प्लान 1600 रु. के प्रोजेक्ट के लिए है जिसके दायरे में 4,58,000 घर आते हैं. लेकिन रियल इस्टेट का सच यह है कि उसके 9,80,865 घर (कोटक इंस्टीट्यूशनल इक्विटिज रिसर्च के मुताबिक) अटके पड़े हैं. तो आखिरी सवाल यही है कि सरकार अब क्या करे. आर्थिक सुधार हो या आर्थिक नीतियों में फेरबदल के लिए भी जो पूंजी चाहिए वह सरकार के पास है नहीं. हालात इतने बुरे हैं कि नवरत्नों का भी डिसइनवेस्ट हो नहीं पा रहा है.
जीएसटी और टैक्स में भी सरकारी रिसिप्ट कम हो चुकी है. फिर कॉर्पोरेट को टैक्स में रियायत देने से भी बाजार में रौनक लौटी नहीं है. तो आखरी सवाल यही है कि क्या सरकार रईसों पर वेल्थ टैक्स बढ़ा दे और उस पैसे को किसान-मजदूर और मध्यम तबके की खरीद ताकत को बढ़ाने में लगा दे. यानी असमानता को कम करने की दिशा में सोचे. लेकिन भारत में कॉर्पोरेट-राजनीति का तालमेल कुछ ऐसा है कि सत्ता में आने और टिके रहने के लिए भी सत्ता को पूंजी चाहिए और ये पूंजी वहीं से आती है जिसे सरकार रियायत देती है. इकोनॉमी के इस चक्रव्यूह को भेदे कौन?