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अवधेश कुमार का ब्लॉग: दल-बदल के बारे में धारणा बदलने की आवश्यकता

By अवधेश कुमार | Updated: February 11, 2022 10:52 IST

चंद्रशेखर सरकार को समर्थन देकर राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 100 दिन में सरकार को गिरा दिया था।

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ठळक मुद्देगोवा में पिछले 5 सालों में विधानसभा के कुल 40 सदस्यों में से 24 ने दल बदला है।दल-बदल की अनेक घटनाओं ने राजनीति को विकृत किया है।1971 में इंदिरा गांधी ने एक वर्ष पूर्व चुनाव कराने का फैसला अपनी राजनीति के तहत किया था।

हाल ही में दल-बदल पर आए एक समाचार ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया. गोवा में पिछले 5 सालों में विधानसभा के कुल 40 सदस्यों में से 24 ने दल बदला. इस तरह 60 प्रतिशत विधायकों ने उस दल को छोड़कर दूसरे दल का दामन थामा जिनसे वे चुनाव जीते थे. सामान्य तौर पर इस तरह की घटनाएं किसी भी विवेकशील व्यक्ति को विचलित कर सकती हैं. 

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान हम देख रहे हैं कि किस तरह नेताओं को पार्टी बदलने में हिचक महसूस नहीं हो रही है. भारतीय राजनीति में यह दृश्य नया नहीं है जिस पर हम आश्चर्य व्यक्त कर सकें. गोवा छोटा राज्य है, इसलिए वहां 60 प्रतिशत विधायकों की बात हमने की लेकिन पूर्वोत्तर में ऐसा लगातार होता है और बनी हुई सरकारें गिरती रही हैं.

दल-बदल की अनेक घटनाओं ने राजनीति को विकृत किया है. 1980 में भजनलाल जनता पार्टी से 37 विधायकों के साथ कांग्रेस में चले गए और मुख्यमंत्नी बने. उसके पहले इतनी बड़ी संख्या में एक साथ जनप्रतिनिधियों के दल बदलने की घटना नहीं हुई थी. हरियाणा भारत का ऐसा राज्य है जहां दल-बदल ने लगातार सत्ता और राजनीति को विकृत किया है. 

यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर दल-बदल की ऐसी बड़ी घटनाएं नहीं हुईं लेकिन गठबंधन सरकारों के दौर में किसी सरकार को समर्थन देकर वापस लेने तथा दूसरे गठबंधन को समर्थन देने की घटनाएं हुई हैं. 

1979 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार को समर्थन दिया और कुछ ही दिनों में उसे वापस ले लिया. इससे समय पूर्व आम चुनाव में जाने की विवशता देश में पहली बार उत्पन्न हुई. 1971 में इंदिरा गांधी ने एक वर्ष पूर्व चुनाव कराने का फैसला अपनी राजनीति के तहत किया था तब ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी. 

दूसरी बार विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार को समर्थन देने वाली भाजपा ने 1990 में हाथ खींचा तथा उसके बाद चंद्रशेखर सरकार को समर्थन देकर राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 100 दिन में सरकार को गिरा दिया. इस तरह देश को मजबूरी में दूसरी बार आम चुनाव में समय पूर्व जाना पड़ा. 

1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार को समर्थन देने वाली कांग्रेस ने दो-दो बार हाथ खींचा. पहली बार तो देवेगौड़ा की जगह इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्नी बना देने के कारण सरकार बच गई लेकिन दूसरी बार नहीं बची. देश को आम चुनाव में जाना पड़ा. ऐसे ही अन्नाद्रमुक ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से 1999 में समर्थन वापस ले लिया और देश को चुनाव में जाना पड़ा.

इस तरह देखें तो राजनीति में दल-बदल के सकारात्मक परिणाम सामान्य तौर पर दिखाई नहीं देंगे. यह सच भी है कि भारत में ज्यादातर दल-बदल या समर्थन वापसी वैचारिक प्रतिबद्धताओं की जगह संकुचित स्वार्थो या फिर राजनीतिक प्रतिशोध के भाव में उत्पन्न हुए. 

लेकिन क्या वाकई दलबदल को हमेशा खलनायक के रूप में ही देखा जाए? जिन लोगों ने 1977 में इंदिरा गांधी से विद्रोह कर कांग्रेस छोड़ा क्या उन्हें भी हम इसी तरह दल-बदलू मान सकते हैं? 

भाजपा अयोध्या आंदोलन में सक्रिय थी, विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा उनके रणनीतिकारों को पता था. लालकृष्ण आडवाणी के रथ को रोकने तथा उन्हें गिरफ्तार करने के बाद भाजपा के पास विकल्प क्या था? वह उसकी विचारधारा का प्रश्न था. इसी तरह अगर राजीव गांधी की हत्या में द्रमुक को लेकर संदेश था तो गुजराल सरकार से समर्थन वापस लेने के अलावा कांग्रेस के पास चारा क्या था? 

यह अलग बात है कि बाद में कांग्रेस ने उसी द्रमुक के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा का गठन किया और 10 वर्ष तक सरकार चलाई. किंतु उस समय की परिस्थिति में इसे आप शतप्रतिशत गलत नहीं कह सकते.

संसदीय प्रणाली में व्हिप की व्यवस्था हो गई है. आप पार्टी नेतृत्व के निर्णय से सहमत हों या नहीं, सदन में व्हिप के अनुसार ही मतदान करना है अन्यथा आपकी सदस्यता जा सकती है. 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने संविधान में संशोधन कर दल-बदल के विरुद्ध प्रावधान किया और उसे दसवीं अनुसूची के रूप में लाया गया. 

अगर कोई निर्वाचित होने के बाद दल बदलता है तो सदस्यता चली जाएगी. कम-से-कम दो तिहाई सदस्यों के साथ दल बदलना पड़ेगा. इसलिए कहीं-कहीं थोक भाव में दल-बदल हुए या किसी ने इस्तीफा देकर दल बदला, दोबारा चुनाव लड़ा या किसी सरकार को गिराया-बचाया और उसकी सदस्यता पर फैसला होने में समय लग गया. 

यह तो नहीं कह सकते कि दल-बदल कानून ने इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया. बहुत सारे दल-बदल देश में इस कानून के कारण ही नहीं हुए. इससे राजनीतिक अस्थिरता के अनेक खतरे टले हैं. वास्तव में दल-बदल को पूरी तरह गलत बताने के लिए राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व के अंदर सुस्पष्ट वैचारिकता और उसके प्रति प्रतिबद्धता का माहौल चाहिए. 

उस प्रतिबद्धता के साथ जो आए उसे टिकट मिले, जो नहीं हो उसे नहीं दिया जाए. जब तक ऐसा नहीं होता हमें दल-बदल को उसके गुण-दोष के आधार पर देखना चाहिए. 

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