एन. के. सिंह का ब्लॉग: विकास की परिभाषा बदलें : ‘मौलिक सुविधाएं’ नहीं, ‘समान अवसर’ जरूरी

By एनके सिंह | Published: December 15, 2019 10:09 AM2019-12-15T10:09:32+5:302019-12-15T10:09:32+5:30

पिछले 29 सालों में 20 साल 135-136वें स्थान में रहने के बाद पिछले नौ वर्षो में धीरे-धीरे कुछ ऊपर आया है। इसी काल में आर्थिक-विकास के पैमाने पर जीडीपी में 14वें स्थान से छलांग लगा आज छठे नंबर पर चुका है।

N. K. Singh blog: Change the definition of development, not 'fundamental facilities', 'equal opportunity' is necessary | एन. के. सिंह का ब्लॉग: विकास की परिभाषा बदलें : ‘मौलिक सुविधाएं’ नहीं, ‘समान अवसर’ जरूरी

एन. के. सिंह का ब्लॉग: विकास की परिभाषा बदलें : ‘मौलिक सुविधाएं’ नहीं, ‘समान अवसर’ जरूरी

विगत 9 दिसंबर, 2019 को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक (एचडीआई), 2019 में भारत पिछले साल के मुकाबले एक खाना ऊपर आकर दुनिया के 176 देशों में 129वें स्थान पर पहुंचा है. पिछले 29 सालों में 20 साल 135-136वें स्थान में रहने के बाद पिछले नौ वर्षो में धीरे-धीरे कुछ ऊपर आया है।

इसी काल में आर्थिक-विकास के पैमाने पर जीडीपी में 14वें स्थान से छलांग लगा आज छठे नंबर पर चुका है (पहली बार सन 2010 में भारत दुनिया के दस बड़ी जीडीपी वाले क्लब में शामिल हुआ) और अब देश के प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी इसे सन 2024 तक पांच ट्रिलियन डॉलर करने की बात हर मंच से कहते हैं.

इस ताजा सूचकांक की खास बात यह है कि इसने पहली बार गरीब-अमीर के बीच बढ़ती असमानता और उससे पैदा हुए अभाव की स्थिति को भी देश के विकास के आकलन में शामिल किया है. विकास के इतिहास में इस रिपोर्ट को दुनिया में एक नए अध्याय के रूप में देखा जा रहा है जिसमें यह संकेत है कि मात्न रोटी और मूलभूत जरूरतें पूरा करना मानव विकास का अंतिम पड़ाव नहीं है क्योंकि यह व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुरूप विकास का अवसर नहीं देता.  

366 पेज की इस रिपोर्ट का शीर्षक है ‘आय, औसतों और वर्तमान से दूर’. इस रिपोर्ट में एक नए संकट की ओर इंगित किया गया है जो भारत सरीखे देशों में बढ़ती असमानता से फैल रही है. इसमें आंकड़ों के जरिये बताया गया कि ऊंचे मानव विकास वाले देशों और निचली पायदान वाले देशों में यह अंतर इतना बड़ा है कि अगर कुछ बच्चे संपन्न देश में सन 2000 में पैदा होते हैं और कुछ निचले पायदान वाले में तो उन दोनों में पहले में 50 प्रतिशत उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं और दूसरे में मात्न 33 में एक. पहले में केवल 100 में से एक जबकि दूसरे में हर छह बच्चों में एक आज जिंदा नहीं रह पाता.

रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में विकास की रफ्तार हाल के कुछ वर्षो में धीमी हुई है. सन 1990-2000 के बीच औसत वार्षिक एचडीआई वृद्धि 1.43 की थी जो 2000-2010 में बढ़कर 1.57 हुई, लेकिन 2010--2018 में यह घट कर 1.34 पर आ गई. लिहाजा भारत विश्व स्तर पर मात्न कुछ स्थान ऊपर (135 से 129 तक) ही आ सका.

यह सच है कि भारत में सन 2005-06 से सन 2015-16 के एक दशक में 27 करोड़ लोगों को गरीबी की शाश्वत गर्त से बाहर लाया गया लेकिन जब उच्च शिक्षा की बात आती है तो वे दलित वर्ग के बच्चे जो प्राइमरी तक काफी अधिक प्रतिशत में स्कूल जाते हैं, मिडिल और उच्च शिक्षा में अन्य वर्गो के मुकाबले अचानक काफी पीछे रह जाते हैं. रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते जीडीपी का लाभ गरीब के मुकाबले संपन्न वर्ग को ज्यादा मिल रहा है नतीजतन नई दौड़ में गरीब का बच्चा पिछड़ रहा है.  

इस रिपोर्ट ने भारत के योजनाकारों को सलाह दी है कि वे अपना ध्यान मात्न ‘भयंकर गरीबी’ से निकालने यानी भोजन और मूलभूत सुविधा मुहैया कराने से हटाकर लगातार बढ़ती असमानता के कारण पैदा होने वाले नए अभावों की ओर लगाएं ताकि उस गरीब को गरिमामय जीवन के लिए अपेक्षित साधन प्राप्त हो सकें.

असमानता के कारण राजनीतिक और अन्य शक्ति-पुंज भी संपन्न वर्ग के हाथों में चला जाता है और नीतिगत फैसले उसी वर्ग के अनुरूप होने लगते हैं. रिपोर्ट में इस बात से आगाह करते हुए सरकारों को हाल में पैदा हुए जनाक्रोशों के प्रति सतर्क रहने की चेतावनी दी गई है.

रिपोर्ट को अगर पूर्णता में देखा जाए तो यह एक नया मसौदा है दुनिया की सरकारों और खासकर भारत सरीखे देशों के लिए, जिनका जीडीपी तो बढ़ रहा है लेकिन बहु-आयामी असमानता और उससे पैदा होने वाले दुष्प्रभावों के कारण कमजोर तबके के संपूर्ण विकास के अवसर उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं.

Web Title: N. K. Singh blog: Change the definition of development, not 'fundamental facilities', 'equal opportunity' is necessary

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