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मेधाताई पेश कर रहीं आदर्श नेता की मिसाल

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: October 3, 2025 07:38 IST

वे एक जिम्मेदार जनप्रतिनिधि के रूप में अपना कर्तव्य निभा रही हैं.

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अभिलाष खांडेकर

राजनेताओं को मैं आमतौर पर बहुत पसंद नहीं करता, लेकिन आज मैं यहां एक छोटी राजनेता की प्रशंसा में लिख रहा हूं. पिछले 75 वर्षों में, स्वतंत्र भारत ने राजनेताओं के हर रंग और रूप देखे हैं, और यह भी कि सत्ता में आने के बाद वे आम जनता के साथ कैसा व्यवहार करते हैं. कई दशकों से राजनीति को नजदीक से देखने पर अपने व्यक्तिगत अनुभव से मुझे लगता है कि हमारे नेताओं की समग्र गुणवत्ता में लगातार गिरावट आ रही है. गुणवत्ता से मेरा तात्पर्य मोटे तौर पर उनकी ईमानदारी, व्यक्तिगत व्यवहार, विद्वता, समाज के वास्तविक कल्याण को आगे बढ़ाने में रुचि और सार्वजनिक संस्थानों के निर्माण और उनकी संरक्षण की क्षमता से है. नेताओं के खाने के व दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं.

जिस जटिल राजनीतिक व्यवस्था में हम रहते हैं, उसमें एक सांसद के पास सामान्यतः सीमित राजनीतिक शक्तियां होती हैं. संसद के दोनों सदनों में से किसी एक का सम्मानित सदस्य होने के नाते उसे ‘विधि निर्माता’ माना जाता है, लेकिन इस उद्देश्य में उसका कितना योगदान होता है, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है.

सांसदों को कई सुविधाएं मिलती हैं और वे अपने कार्यकाल के दौरान आम तौर पर एक अच्छा जीवन जीते हैं, लेकिन उनकी असली ताकत या लोकप्रियता उन लोगों (मतदाताओं) की अनगिनत समस्याओं का समाधान करने में निहित है जो उन्हें ‘माननीय’ सांसद बनाने के लिए बहूमूल्य वोट देते हैं. लोकसभा के सांसद सीधे पांच साल के लिए चुने जाते हैं, जबकि उच्च सदन (राज्यसभा) के सांसद अप्रत्यक्ष रूप से - अपनी पार्टी के संख्याबल पर - छह साल के लिए चुने जाते हैं.

उनका प्राथमिक कार्य कानून बनाना है, फिर भी उनसे सैकड़ों अन्य कार्यों को पूरा करने की अपेक्षा की जाती है - जैसे कि नालियों या सड़कों को दुरुस्त करवाना, स्थानांतरण की सिफारिश करना, विद्यालय/महाविद्यालय में प्रवेश में मदद करना और एफआईआर दर्ज करवाना (या दर्ज न करवाना), इसके अलावा स्थानीय क्षेत्र के विकास कार्य और आम आदमी के लिए दिक्कतें खड़ी करने वाली राजनैतिक रैलियां आयोजित करना इत्यादि.

खैर, मैं जिस राजनेता के बारे में लिख रहा हूं, वह बिलकुल अलग दिखती हैं. उन्होंने गरबा उत्सव के दौरान सार्वजनिक स्थानों पर शोरगुल रोकने के लिए दमदारी से आवाज उठाई है.

वे हैं पुणे की मेधाताई कुलकर्णी. पुणे के एक इलाके में लगातार बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से जूझ रहे नागरिकों की मदद के लिए उनके सारे कानूनी-प्रशासनिक प्रयास विफल होने के बाद, उन्होंने अपनी ही पार्टी की सरकार और उसके अंग, यानी पुलिस, के खिलाफ आवाज उठाई है.

मैंने सोशल मीडिया पर उनके साहसिक कदम और फिर एक मराठी समाचार चैनल पर उनके साक्षात्कार को देखा और सचमुच यह देखकर हैरान रह गया कि उन्होंने बुजुर्गों और गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए इतना अच्छा रुख अपनाया. गरबा संगीत बजाने वाले ध्वनि विस्तारकों (लाउडस्पीकरों) ने जब सारी हदें पार कर दीं, जिससे कॉलोनी के आसपास के वरिष्ठ नागरिकों को भारी परेशानी हो रही थी, लेकिन पुणे पुलिस ने उनकी एक न सुनी, तब सांसद महोदया को ‘गरबा’ रोकने के लिए धमकी देनी पड़ी. संस्कृति के नाम पर बढ़ते ध्वनि प्रदूषण और ‘डीजे’ द्वारा अभद्र गीतों के जरिये युवाओं को गुमराह करने की कोशिशों से राज्यसभा की यह साहसी सदस्य वाजिब तौर पर परेशान थीं. उन्होंने नवरात्रि जैसे त्यौहारों पर सार्वजनिक समारोहों की पारंपरिक मौलिकता की रक्षा के लिए एक व्यापक अभियान शुरू करने की चेतावनी दी है जिसे मैं भी जरूरी समझता हूं. जनहित में अपनाए गए कड़े रुख के कारण मेधाताई रातोंरात सोशल मीडिया पर लोकप्रिय हो गई हैं.  

गुजराती समाज का नवरात्रि उत्सव ‘गरबा’ अब सभी राज्यों में फैल गया है और अपने साथ कुछ बुराइयां भी लेकर आया है. गणेश उत्सव, जो कभी महाराष्ट्र से जुड़ा था और लोकमान्य तिलक द्वारा एक महान उद्देश्य से शुरू किया गया था, भी अब दूसरे राज्यों में फैल गया है.

यहां मुद्दा त्यौहारों को मनाने का नहीं, जनता की असुविधा और अत्यधिक ध्वनि प्रदूषण का है. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन नरीमन ने ध्वनि प्रदूषण के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए सभी धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों पर देशव्यापी प्रतिबंध लगाने की मांग की थी. क्या वह गलत है? प्रसिद्ध न्यायविद ने शोर को कम करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत मौलिक अधिकारों का हवाला दिया था- चाहे वह किसी भी धार्मिक स्थल से हो. क्या सरकार में किसी जिम्मेदार ने इस पर ध्यान दिया?

पुणे का मामला थोड़ा अलग है. सांसद कुलकर्णी ने पुलिस अधिकारियों को फोन किया था, जिनका काम कानून-व्यवस्था बनाए रखना था. पीड़ित व्यक्तियों की बार-बार की शिकायतों के बावजूद, पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की; उन्होंने जनप्रतिनिधि होने के नाते मेधाताई द्वारा की जाने वाली शिकायतों को भी नजरअंदाज कर दिया.

दुर्भाग्य से, सरकारें और चुनिंदा सांस्कृतिक संगठन आज लोगों को ऐसे धार्मिक समारोहों में भीड़भाड़ में धकेल रहे हैं जिनमें डीजे और तेज, बहुत तेज स्पीकर जैसे अनिवार्य हो. सरकारी नियम शोर के स्तर को निर्धारित करते हैं, लेकिन जिलाधीश  या पुलिस अधीक्षक धार्मिक समूहों के खिलाफ कार्रवाई करने से अब डरते हैं.

बढ़ते सामाजिक शोरगुल और त्यौहारों को प्रदूषित करने की इस पृष्ठभूमि में, मेधाताई कुलकर्णी की खुली भूमिका वाकई सराहनीय है. भाजपा नेता ने बिलकुल सही किया है और अब सभी सही सोच रखने वाले लोगों और संगठनों को उनका खुला समर्थन करना चाहिए क्योंकि उन्हें बुजुर्गों और युवाओं, दोनों की चिंता है. वे एक जिम्मेदार जनप्रतिनिधि के रूप में अपना कर्तव्य निभा रही हैं. हमें भारत में मेधाताई जैसे और भी कई नेताओं की सख्त जरूरत है जो सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस रखते हों.

टॅग्स :BJPMaharashtra
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