मंदसौर रेपः जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 1, 2018 07:45 AM2018-07-01T07:45:49+5:302018-07-01T07:56:42+5:30

मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो ने स्त्री के प्रति पीड़ा की अभिव्यक्ति में अधिकतर लोक-लाज की बेड़ियों का बखूबी दमन किया है।

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मंदसौर रेपः जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड के एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते दशक में करीब 25 लाख महिला अपराध मामले प्रकाश में आए। यानी हर दूसरे मिनट में एक महिला अपराध संबंधित घटना घटती है। गुरुवार 28 जून को मध्य प्रदेश में सात वर्ष बच्ची से भवायह रेप किया गया। उसके निजी अंगों में रॉड डाल दी गई। उसके शरीर व चेहरे पर आरोपी के दांतों के निशान पाए गए। फिलहाल बच्ची कोमा में है। जान बचाने के लिए उसकी आँतों का कुछ हिस्सा काटना पड़ा है। फिलहाल बच्ची की हालत अब खतरे से बाहर बताई जा रही है। इस घटना को दिल्ली की निर्भया घटना से जोड़कर देखा जा रहा है। आरोपियों के लिए कड़ी सजा की मांग की जा रही है। लेकिन सवाल यह उठता है कि निर्भया मामले के वक्त भी पूरे देश में रेप को लेकर नाराजगी सामने आई थी। घटना दिल्ली में होने चलते मीडिया में भी यह जमकर चर्चा में रही। इसके बावजूद चार साल में लगातार घटनाएं घटती हैं और एक बार फिर से ऐसी घटना घटती है जिस पीड़ा को शब्दों में बयां करना हमारे लिए मुश्किल है।

मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो ने स्त्री के प्रति पीड़ा की अभिव्यक्ति में अधिकतर लोक-लाज की बेड़ियों का बखूबी दमन किया है। अपनी अनेक कथाओं में मंटो ने स्त्री शब्द के इर्द-गिर्द गढ़ी कुरीतियों पर कलम से प्रहार किया। मंदसौर के कुकृत्य पर मंटो के कहानी ‘शरीफन’ का एक हिस्सा बेहद प्रासंगिक है-

जब कासिम ने अपने घर का दरवाज़ा खोला तो उसे सिर्फ़ एक गोली की जलन थी, जो उसकी दायीं पिंडली में गड़ गयी थी। लेकिन अन्दर जा कर, जब उसने अपनी बीवी की लाश देखी तो उसकी आंखों में ख़ून उतर आया। क़रीब था कि वह लकड़ियां फाड़ने वाले गंड़ासे को उठा कर पागलों की तरह बाहर निकल जाये और ख़ून-ख़राबे का बाज़ार गर्म कर दे कि अचानक उसे अपनी लड़की शरीफ़न ख़याल आया।

‘शरीफ़न-शरीफ़न’ उसने ऊंची आवाज़ में पुकारना शुरू किया। सामने, दालान के दोनों दरवाज़े बन्द थे। कासिम ने सोचा, शायद डर के मारे अन्दर छिप गयी होगी। इसलिए वह उस तरफ़ बढ़ा और झिरी के साथ मुंह लगा कर कहा- शरीफ़न…शरीफ़न, मैं हूं तुम्हारा बाप। मगर अन्दर से कोई जवाब न आया। कासिम ने दोनों हाथों से किवाड़ को धक्का दिया। पट खुले और वह औंधे-मुंह दालान में गिर पड़ा। संभल कर, जब उसने उठना चाहा तो उसे लगा कि वह किसी…कासिम चीख़कर उठ बैठा।

एक गज़ के फ़ासले पर एक जवान लड़की की लाश पड़ी थी-नंगी बिलकुल नंगी। गोरा-गोरा, सुडौल शरीर, छत की तरफ़ उठे हुए, छोटे-छोटे स्तन-कासिम का सारा वजूद एकदम हिल गया। उसकी गहराइयों से एक गगन-भेदी चीख़ उठी, लेकिन उसके होंठ इस ज़ोर से भिंचे हुए थे कि बाहर न निकल सकी। उसकी आंखें अपने आप बन्द हो गयी थीं। फिर भी उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढांक लिया। मरी-सी आवाज़ उसके मुंह से निकली- शरीफ़न और उसने आंखें बन्द किये हुए ही, दालान में इधर-उधर हाथ मार कर, कुछ कपड़े उठाये और उन्हें शरीफ़न की लाश पर गिरा कर, यह देखे बिना ही बाहर निकल गया कि वे उससे कुछ दूर गिरे थे।

गंड़ासा हाथ में लिये हुए, कासिम सुनसान बाज़ारों में उबलते हुए लावे की तरह बहता चला जा रहा था। चौक के पास उसका सामना एक सिक्ख से हुआ। बड़ा कड़ियल जवान था, लेकिन कासिम ने कुछ ऐसे बेतुकेपन से हमला किया और ऐसा भरपूर हाथ मारा कि वह तेज़ तूफ़ान में उखड़े हुए पेड़ की तरह ज़मीन पर आ रहा। कासिम की नसों में उसका ख़ून और ज़्यादा गर्म हो गया और बजने लगा तड़…तड़…तड़…तड़ जैसे खौलते हुए तेल पर पानी का हल्का-सा छींटा पड़ जाय।

कासिम के होंठ भिंच गये-भड़क कर उसने पूछा, कौन हो तुम?
लड़की ने सूखे होंठों पर ज़बान फेरी और जवाब दिया, हिन्दू

कासिम तन कर खड़ा हो गया। जलती हुई आंखों से उसने उस लड़की की तरफ़ देखा, जिसकी उमर चौदह या पन्द्रह बरस की थी। उसने हाथ से गंड़ासा गिरा दिया।

फिर वह बाज़ की तरह झपटा और उस लड़की को धकेल कर दालान में ले गया। दोनों हाथों से उसने पागलों की तरह उसके कपड़े फाड़ने शुरू किये। धज्जियां और चिन्दियां यूं उड़ने लगीं, जैसे कोई रूई धुनक रहा हो। लगभग आधा घण्टा कासिम अपना प्रतिशोध लेने में व्यस्त रहा। लड़की ने कोई विरोध न किया, इसलिए कि वह फ़र्श पर गिरते ही बेहोश हो गयी थी।

जब कासिम ने आंखें खोलीं तो उसके दोनों हाथ लड़की की गरदन में धंसे हुए थे। एक झटके के साथ उन्हें अलग करके वह उठा। पसीने में ग़र्क उसने एक नज़र उस लड़की की तरफ़ देखा, ताकि उसकी और तसल्ली हो सके। एक गज़ के फ़ासले पर उस जवान लड़की की लाश पड़ी थी-नंगी बिलकुल नंगी। गोरा-गोरा, सुडौल शरीर; छत की तरफ़ उठे हुए, छोटे-छोटे स्तन-कासिम की आंखें सहसा बन्द हो गयीं। दोनों हाथों से उसने अपना चेहरा ढांप लिया। बदन पर गर्म-गर्म पसीना, बर्फ़ हो गया और उसकी नसों में खौलता हुआ लावा पत्थर की तरह स़ख्त हो गया।

गुरुदत्त ने पचास के दशक में देह की फ़रोख्त के खिलाफ़ सिनेमा रचने का ख़याल किया जिसका अदद पेशकश थी फिल्म ‘प्यासा’।  हालांकि इस प्रसंग और मंदसौर घटनाक्रम में सीधे तौर पर सम्बंध नज़र नहीं आता लेकिन सत्य यही है कि उस दौर के किस्सों में आज के कमोवेश की कल्पना कर ली गई थी।  यह जानने के बावजूद कि वह दौर सिनेमा का शैशवकाल था, नूतन फलते फूलते सिनेमा के अंग – प्रत्यंग ने आकार लेना शुरू ही किया था।  सामाजिक सीमाओं में उलझी तमाम बेड़ियों को काटते हुए उम्दा कलमकार साहिर लुधियानवी, गुरुदत्त के आग्रह पर अपनी मशहूर नज़्म की तासीर में तब्दीली लाए।  उसका एक लघु हिस्सा :

मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी
यशोदा की हमजिंस राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत ज़ुलेखा की बेटी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ?

आश्चर्य ना हो यदि नज़्म के अंतिम हिस्से में अंकित प्रश्न का उत्तर अनेक सामाजिक पुरोधाओं के पास ना हो। निसंदेह लुधियानवी साहब का मंतव्य बेहद स्पष्ट होगा। उस मंतव्य के फलीभूत उन्होंने यशोदा, ज़ुलेखा की बेटियों को हव्वा की बेटी के समान तुलादंड पर रख कर अजेय प्रश्न का सृजन किया-

‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ ?

लुधियानवी साहब ने संवेदना और हमदर्दी का पैमाना तीन भिन्न कुलों से आयी बेटियों के लिए समान रखा। समाज में यत्र तत्र बिखरे सामाजिक ठेकेदारों, हुक्मरानों और सत्तासीनों से प्रश्न आवश्यक है कि- ज़्यादती, क्रूरता, विसंगति, नृशंसता पर प्रहार कब ? न्याय कब ?

न्याय कब के अतिरिक्त एक और समस्या है जिसका निराकरण अमूमन कम हुक्मरान या सामाजिक ठेकेदारों के पास होता है कि हमारी चेतना को आकार लेने के लिए ऐसी किसी नीच घटना की आवश्यकता क्यों होती है ? जिस अस्पताल में अबोध बालिका भर्ती है उसके आस-पास हज़ारों की तादाद में आम जन का क्रोधित और आक्रोशित जत्था कुकृत्य का विरोध कर रहा है।  यह सामाजिक चेतना और क्रोध इस घटना के पूर्व अस्तित्व में क्यों नहीं आया ? भीड़ में मौजूद लोगों का कहना है कि “आरोपी उन्हें सौंप दिया जाए”।

आरोपी के समुदाय की जनता का कहना है कि वह आरोपी का जनाज़ा नहीं निकालेंगे और ना ही उसके पार्थिव शरीर को किसी कब्रगाह में पनाह देंगे। स्त्री से संलग्न मुद्दों पर हमारा संज्ञान और सचेतन घटना के उपरान्त ही क्यों होता है? इतिहास इसका अखंड साक्षी है, आसिफा हो अथवा निर्भया, आम जनता का क्रोध और आक्रोश चरम पर था किन्तु सारी क्रूरता हो जाने के पश्चात। हमारी जागृति तब कहाँ होती हैं जब एक अबोध बालिका के कलेजे को एक हैवान की क्रूरता रौंदती रहती है?

एनसीआरबी के एक आंकड़े के मुताबिक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में वर्ष 2016 के दौरान 38,947 बलात्कार की घटनाएं हुईं। मध्य प्रदेश सर्वाधिक 4,882 बलात्कार की घटनाओं का साक्षी रहा। इतना ही नहीं मामला दर्ज होने की दर वर्ष 2016 में 18.9 % यानी बीते कुछ वर्षों की न्यूनतम रही और इसी वर्ष में कुल 33 लाख से अधिक महिला अपराध के मामले दर्ज हुए। यदि आप भ्रम में हैं कि महिला अपराध के आंकड़ों का गणित इतने पर समाप्त होता है तो बीते दो वर्षों से देश भर में होने वाले कुल अपराध में महिला अपराध 33 प्रतिशत होता है।

(ब्लॉग- विभव देव शुक्ला)

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