पवन के. वर्मा का ब्लॉग: सबसे पुराने साथी की बगावत
By पवन के वर्मा | Published: November 17, 2019 07:25 AM2019-11-17T07:25:11+5:302019-11-17T07:25:11+5:30
राष्ट्रपति शासन का सामना कर रहे महाराष्ट्र में जब भी यह नया गठबंधन जरुरी आंकड़ों के साथ राज्यपाल के पास पहुंचेगा तो उन्हें विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करने का मौका देना ही होगा.
राजनीति में किसी बात की भविष्यवाणी एक मुश्किल काम है और महाराष्ट्र में अब यह संभावना तेजी से मजबूत होती जा रही है कि वहां शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस का गठबंधन सत्ता संभालने जा रहा है. फिलहाल राष्ट्रपति शासन का सामना कर रहे महाराष्ट्र में जब भी यह नया गठबंधन जरुरी आंकड़ों के साथ राज्यपाल के पास पहुंचेगा तो उन्हें विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करने का मौका देना ही होगा.
इस घटनाक्रम का साफ मतलब है कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन इतिहास की बात हो गया है. कई लोगों को लग रहा था कि शिवसेना केवल कुछ अच्छा हिस्सा हासिल करने के लिए तेवर दिखा रही है, लेकिन देवेंद्र फडणवीस के सरकार बनाने के तमाम दावों के बीच शिवसेना अपने तेवरों और रुख पर कायम रही.
सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर शिवसेना क्यों भाजपा के साथ मुख्यमंत्री पर 50-50 के फार्मूले पर इतना अड़ गई? यह जिद थी या बेवजह का अड़ियलपन (जैसा कि भाजपा को लगता है)? या ठाकरे परिवार के प्रति भक्ति, क्योंकि पहली बार ठाकरे परिवार का कोई व्यक्ति (आदित्य) चुनाव जीता था. या फिर वाकई भाजपा ने चुनाव पूर्व किया सत्ता में 50-50 की भागीदारी का वादा नहीं निभाने के कारण? हकीकत तो केवल भाजपा और शिवसेना के नेता ही जानते हैं. विचारधारा के लिहाज से सबसे निकट सहयोगी दल शिवसेना के साथ नहीं बन पाने को भाजपा की गठबंधन की राजनीति में नाकामी के तौर पर भी देखा जा सकता है.
ऐसा लगता है कि 2014 और 2019 के संसदीय चुनावों के बाद भाजपा में वह जीत की हेठी आ गई है जिसमें दूसरे दलों के लिए कोई जगह नहीं है. क्योंकि आखिर कर्नाटक दिखा चुका है कि जरुरी नहीं कि बड़े दल का ही व्यक्ति मुख्यमंत्री बने. वक्त आ गया है जब भाजपा को तय करना होगा कि वह लचीला गठबंधन चाहता है या फिर ऐसा गठबंधन जहां वह सीटों की संख्या के दम पर हमेशा हावी रहेगी. बाद का विकल्प ज्यादा ठीक लग तो रहा है, लेकिन उसकी राह की बाधाएं महाराष्ट्र में साफ देखने को मिल रही हैं.
इस सारी उठापटक में सबसे ज्यादा फायदे में रही है कांग्रेस. उसे सबसे कम 44 सीटें मिली हैं, लेकिन उसके दर्जन भर मंत्रियों के साथ सरकार में मौजूद रहने की संभावना है. कांग्रेस को शिवसेना और भाजपा में से ज्यादा बड़े दुश्मन को खोजकर ही फैसला लेना होगा. यह भी तय है कि भाजपा मूक दर्शक बनकर नहीं बैठेगी. शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गठबंधन सरकार अच्छी चली तो भाजपा की हार होगी, वरना अगले दौर में वह सबको चौंका सकती है. आने वाले वक्त में चाहे जो हो, लेकिन इस समूचे प्रकरण में भाजपा के लिए सबसे पुराने साथी शिवसेना के बगावती तेवर सबसे चौंकाने वाली बात है.