राजनीति के आगे विकास के सपने ओझल!, संभावना के बीच सत्ता के समीकरण

By Amitabh Shrivastava | Updated: May 1, 2025 05:39 IST2025-05-01T05:38:32+5:302025-05-01T05:39:20+5:30

Maharashtra: शिवसेना के शिंदे गुट का टशन सामने आता है तो कहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता का लोलुप बताकर दूसरे दलों को डराया जाता है.

Maharashtra Dreams development lost in front politics blog Amitabh Srivastava | राजनीति के आगे विकास के सपने ओझल!, संभावना के बीच सत्ता के समीकरण

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Highlightsचाचा-भतीजे के मिलने की संभावना के बीच सत्ता के समीकरणों को देखा जाता है. गुजरात, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और कर्नाटक औद्योगिक प्रगति में गंभीर चुनौती प्रस्तुत कर रहे हैं.मंत्री भी बदल जाते थे. इससे अधिक हर दिन की किसी चर्चा को बल नहीं मिलता था.

पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो, जब राजनीति को छोड़ कर प्रदेश के हितों की ईमानदारी के साथ चर्चा की जाती हो. कोई सुबह-सुबह सरकार की आलोचना में जुट जाता है तो कोई दिनभर राजनीतिक पैंतरों को खेलता रहता है. लगभग 12 करोड़ की आबादी वाले राज्य में कांग्रेस सरकार के दौरान कुछ मौकों पर सत्ता की बागडोर परिवर्तन की चर्चा होती थी और कुछ ही दिनों में सिमट भी जाती थी. किंतु वर्तमान समय में कभी दो चचेरे भाइयों के एक होने की बात, तो कभी चाचा-भतीजे के मिलने की संभावना के बीच सत्ता के समीकरणों को देखा जाता है.

कहीं शिवसेना के शिंदे गुट का टशन सामने आता है तो कहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता का लोलुप बताकर दूसरे दलों को डराया जाता है. इस अदृश्य राजनीतिक अस्थिरता का प्रभाव राज्य के विकास पर पड़ा है. लाख दावों के बावजूद पड़ोसी राज्य गुजरात, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और कर्नाटक औद्योगिक प्रगति में गंभीर चुनौती प्रस्तुत कर रहे हैं.

निवेशकों को इन राज्यों को छोड़कर महाराष्ट्र में लाना टेढ़ी खीर हो चुकी है. जिसके लिए बहुत हद तक राजनीति जिम्मेदार है और वह उद्यमियों के मन में सवाल खड़ा करती है, जिसका उत्तर राज्य सरकार नहीं दे पाती है, क्योंकि वह परिस्थितियों के साथ चल रही है. करीब 11 साल पहले महाराष्ट्र सरकार की स्थितियों को याद किया जाए तो कांग्रेस के नेतृत्व की सरकार को अपने आलाकमान से आदेश मिलने पर मुख्यमंत्री को बदलना पड़ता था और कुछ मंत्री भी बदल जाते थे. इससे अधिक हर दिन की किसी चर्चा को बल नहीं मिलता था.

सरकार अपने ढंग से काम करती रहती थी. वर्तमान दौर में कांग्रेस को छोड़ हर एक दल की चिंताएं हैं. विभाजित दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के शरद पवार और अजित पवार गुट के एक होने की चर्चा लगातार चलती रहती है. शिवसेना ठाकरे गुट के नेता उद्धव ठाकरे और उनके चचेरे भाई महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे के एक होने या नहीं हो पाने की बात को इन दिनों विशेष महत्व मिला है, क्योंकि उससे भाजपा और शिवसेना शिंदे गुट के भविष्य पर प्रभाव पड़ सकता है. भाजपा में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने दिल्ली बुलाने की बात को पार्टी नेतृत्व पर छोड़ दिया है.

इस सब के बीच किस दल का नेता, कब और कहां दूसरे दल में शामिल होगा, कहा नहीं जा सकता है. यह सिलसिला पिछले कई सालों से चल रहा है. वर्ष 2014 में भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद से वर्ष 2019 में उद्धव ठाकरे सरकार बनने से लेकर शिंदे सरकार के बनने तक राज्य से अधिक नेताओं को स्वयं की चिंता अधिक दिख रही है.

इसी कारण राज्य में विकास की गंभीर चर्चा गौण है. बेरोजगारी से लेकर औद्योगिक विकास को सही दिशा नहीं मिल रही है. दावों के लिए यदि कुछ नाम और आंकड़े मिलते हैं तो उनमें नयापन नहीं है. कोई नया औद्योगिक क्षेत्र विकसित होता नहीं दिखता है. मुंबई, पुणे को छोड़ यदि कहीं बात आगे बढ़ती है तो वह दीर्घकालीन योजना की तरह ही दिखती है.

पिछले ही माह राज्य विधानसभा में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण में वर्ष 2024-25 में अर्थव्यवस्था के 7.3 प्रतिशत की दर से बढ़ने का अनुमान व्यक्त किया गया. जिसे देश की आर्थिक विकास दर 6.5 प्रतिशत से अधिक बताया गया. मगर इसके पिछले साल 2023-24 में आर्थिक वृद्धि दर 7.6 प्रतिशत थी, जो उससे पहले के वर्ष 2022-23 में 6.8 प्रतिशत से अधिक थी.

यदि इन सामान्य आंकड़ों को ही मिलाया जाए तो आने वाला वर्ष अनुमान में ही पीछे है. देश के सकल घरेलू उत्पाद में सर्वाधिक योगदान देने का दावा करने के बावजूद प्रति व्यक्ति आय में राज्य काफी पीछे है. राज्य के आर्थिक सर्वेक्षण में वर्ष 2024-25 में प्रति व्यक्ति आय 3,09,340 रुपए अनुमानित है, जो पिछले साल की आय 2,78,681 रुपए से काफी अधिक है.

मगर पिछले साल की तमिलनाडु की प्रति व्यक्ति आय 3,15,220 रुपए, कर्नाटक की प्रति व्यक्ति आय 3,32,926 रुपए और गुजरात की प्रति व्यक्ति आय 2,97,722 रुपए से कम है. ये सभी आंकड़े साबित करते हैं कि दावों और वास्तविकता में काफी अंतर है. राज्य में जल संकट से कृषि क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित है. इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव उद्योगों पर भी है.

मगर अभी तक कोई ठोस समाधान सामने नहीं आया है. राज्य सरकार अनेक बार ‘वाटर ग्रिड’ की संकल्पना को सामने ला रही है, किंतु उसके तैयार होने की कोई निर्धारित अवधि नहीं बताई गई है. आधारभूत संरचना में सड़कों में सुधार है, लेकिन लाभ हर जिले को नहीं है. इसी प्रकार राज्य में लगातार महंगी होती बिजली को सस्ता करने के सीधे रास्ते नहीं ढूंढ़े जा रहे हैं.

जिसकी सीधी वजह आवश्यकता से कम उत्पादन और निजी क्षेत्र से बिजली खरीदना है. सौर ऊर्जा एक विकल्प है, लेकिन उसकी शुरुआती लागत तथा समायोजन सभी को राहत नहीं दे रहा है. शिक्षा का लाभ छोटे जिलों तक नहीं पहुंच रहा है. इसलिए बड़े नगरों में शिक्षा और रोजगार के नाम पर जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है, जिससे उनके संसाधन लड़खड़ाने लगे हैं.

महाराष्ट्र अपने सांस्कृतिक वैभव, सामाजिक आंदोलन, प्रगतिशील विचारों के लिए देश में अपनी अलग पहचान रखता है. किंतु राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते इन बातों को क्षीण कर जाति, समाज और धर्म के नाम पर भेद इतने बढ़ा दिए गए हैं कि मराठी मानुस विभाजित हो चला है. आधुनिक दौर में जब उसे एकजुटता के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता थी, तब उसके मन में बिखराव के बीज बो दिए हैं.

निश्चित ही यह विकास की धारा के अवरुद्ध होने का भी परिणाम है. किंतु अब इसे गंभीरता और प्राथमिकता के साथ देखने और सुधारने की जरूरत है. राजनीति यदि प्रदेश की प्रगति में बाधा बनने लगेगी तो उसका भविष्य भी अच्छा नहीं होगा. 65वें महाराष्ट्र दिवस पर राजनीतिज्ञों से यही अपेक्षा और अनुरोध किया जा सकता है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को पाने के लिए राज्य की अपेक्षाओं की बलि न चढ़ाएं.

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