डॉ. विशाला शर्मा का ब्लॉगः महादेवी के संतत्व की छाया और घीसा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 26, 2019 09:11 AM2019-03-26T09:11:11+5:302019-03-26T09:11:11+5:30
26 मार्च 1907 को जन्मीं महादेवी वर्मा अपनी माता के संपर्क में अधिक रहीं. माता के संस्कार महादेवी के व्यक्तित्व में दिखते हैं. माता से मिली भावुकता और पिता से मिली दार्शनिकता का उनके जीवन व साहित्य में समन्वय है.
डॉ. विशाला शर्मा
महादेवी वर्मा का नाम छायावाद के आधारस्तंभ के रूप में प्रसिद्ध है. उनके पात्न निम्नवर्ग के व्यक्ति होते हुए भी महादेवी का संपर्क पाकर अमर हो गए हैं. उनके रेखाचित्नों में संस्मरण का मनोहर मिश्रण है. दीन-हीन पीड़ित-शोषित, विवश और समाज से परित्यक्त पात्नों की जीवन कथा को उन्होंने शब्द दिए हैं.
26 मार्च 1907 को जन्मीं महादेवी वर्मा अपनी माता के संपर्क में अधिक रहीं. माता के संस्कार महादेवी के व्यक्तित्व में दिखते हैं. माता से मिली भावुकता और पिता से मिली दार्शनिकता का उनके जीवन व साहित्य में समन्वय है.
उनके ‘अतीत के चलचित्न’ संकलन में संग्रहीत ‘घीसा’ रेखाचित्न गुरु और शिष्य के संबंधों की पड़ताल करता है. सभी पात्न छोटे तबके के हैं किंतु इनकी कथा पाठक को करुणा से भर देती है. घीसा की तरह समाज के अन्य उपेक्षित पात्न महादेवी वर्मा की ममता और करुणापूर्ण सहानुभूति के कारण श्रेष्ठ बन गए हैं. उनके रेखाचित्नों में सामाजिक जीवन की व्यथा दिखाई देती है.
‘घीसा’ रेखाचित्न ‘अतीत के चलचित्न’ संकलन का सातवां रेखाचित्न है. इसमें महादेवी ने झूंसी के खंडहरों के निकट बसे ग्राम की संस्कृति का चित्नण किया है. यह चित्नण हमें ग्रामीण परिवेश की जानकारी देता है. ग्रामीण जीवनशैली और विवशता का चित्नण इस वर्णन में संकेत रूप में बिखरा पड़ा है.
रेखाचित्न का पात्न घीसा है जो अल्पकाल के लिए लेखिका के संपर्क में आया था. वह गंगातट का मलिन सामान्य-सा बालक है. घीसा अत्यंत जिज्ञासु है. उसका बाह्य वातावरण कुरूप है, लेकिन आंतरिक दृष्टि से घीसा स्वच्छ, विनम्र, भावुक और श्रद्धालु बालक है. उसका नाम परिवेश के अनुसार ही कवित्वहीन है किंतु उसके व्यवहार में कविसुलभ गुण उपस्थित हैं. परिस्थितिवश उसकी जीवनशक्ति घुट जाती है. इस चित्नण के द्वारा लेखिका मानवीय भावों के संरक्षण-संवर्धन का आग्रह करती हैं.
यह रेखाचित्न एक ऐसी करुणामय विवशता प्रकट करता है कि लेखक और पाठक का मन एकाकार हो जाता है. उसे इस अत्याचारी समाज का अंग होने का दु:ख होता है. यहां प्रश्न केवल एक घीसा का नहीं है. समाज में अनेक ऐसे घीसा फैले हुए हैं. रेखाचित्न हमें उन घीसाओं के उत्थान की दिशा में प्रयास करने को तत्पर करता है. यही लेखिका की सफलता है.