चुनावों से भी पहले मानवीय जिम्मेदारी को समझें, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: April 13, 2021 01:23 PM2021-04-13T13:23:44+5:302021-04-13T13:25:25+5:30
दमोह सीट पर भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं प्रदेश के पूर्व मंत्री जयंत मलैया वर्ष 1990 से 2018 तक छह बार विधायक रहे, लेकिन नवंबर 2018 में हुए चुनाव में उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी ने मात्र 798 मतों से पराजित कर दिया था.
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में एक दमोह जिला है. वहां विधानसभा का उपचुनाव हो रहा है. एक विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गया.
अब उसकी सीट पर दमोह में उपचुनाव हो रहा है और वही पूर्व विधायक अब भाजपा से चुनाव लड़ रहा है. इस एक सीट पर निर्वाचन तुरंत होना चाहिए - ऐसी कोई आसमानी आफत नहीं आई थी, जिससे राज्य सरकार गिर जाती और न लोकतंत्न के लिए कोई खतरा आन पड़ा था. माना जा सकता है कि यह चुनाव एक तरह से उस विधायक द्वारा चुनाव आयोग और मतदाताओं पर थोपी गई अनावश्यक प्रक्रिया है. उस विधायक की अंतरात्मा की आवाज ने अचानक शोर मचाया और उसने दल बदल लिया.
अब उस विधानसभा क्षेत्न, प्रदेश सरकार और निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी बन गई है कि वहां लोकतंत्न की रक्षा करे. बताना आवश्यक है कि मध्य प्रदेश के सारे जिलों में कोरोना भयावह आकार ले चुका है. पूरे राज्य में लॉकडाउन अंशकालिक अथवा पूर्णकालिक तौर पर चल रहा है. रात का कफ्यरू लागू है. मौतों का आंकड़ा विकराल है. श्मशान कम पड़ने लगे हैं.
अंतिम संस्कार के लिए एक से दो दिन की प्रतीक्षा सूची है. अस्पतालों में अब मरीजों को भर्ती करना करीब-करीब बंद सा ही है. सारे कोरोना वार्ड ठसाठस हैं. दवाएं और इंजेक्शन नदारद हैं. ऑक्सीजन संकट से कमोबेश सभी जिलों में हाहाकार है. प्रदेश सरकार का रोज जारी होने वाला स्वास्थ्य बुलेटिन इसका सबूत है. इस बुलेटिन में प्रत्येक जिले के ताजा कोरोना आंकड़े होते हैं.
विडंबना है कि यह बुलेटिन दमोह के बारे में भी खतरनाक सूचनाएं दे रहा है. कैसे माना जाए कि यह जिला एकदम कोरोना मुक्त है और चुनाव के लिए फिट है? जिले से मिलने वाली खबरें बताती हैं कि ग्रामीण आबादी बहुल इस जिले में भी महामारी का संक्रमण फैल चुका है. अस्पतालों में मरीजों के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं.
भारतीय निर्वाचन आयोग की मासूमियत यह है कि उसने जिले को लॉकडाउन से मुक्त कर दिया है. वहां धड़ल्ले से चुनावी रैलियां हो रही हैं. अधिकतर नेता, प्रत्याशी, राजनीतिक कार्यकर्ता और समर्थक बिना मास्क लगाए घूम रहे हैं. वे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन भी नहीं कर रहे हैं. जिला प्रशासन से हर चुनाव के पहले रिपोर्ट मांगी जाती है कि वहां मतदान के लायक परिस्थितियां हैं अथवा नहीं.
क्या दमोह के अफसर किसी दबाव में थे? क्या वे चुनाव आगे बढ़ाने के बारे में रिपोर्ट नहीं दे सकते थे? प्रसंग के तौर पर याद दिलाना जरूरी है कि आपदा की स्थिति में चुनाव पहले भी टाले जाते रहे हैं. जब 1984 में भोपाल गैस कांड हुआ तो उसके बाद भोपाल में लोकसभा क्षेत्न के चुनाव टाल दिए गए थे. उस समय संसदीय लोकतंत्न पर कोई कहर नहीं टूटा था. तो अब इसे क्या माना जाए.
संवैधानिक लोकतंत्न की एक अनिवार्यता या फिर जिले में कोरोना को और फैलने देने तथा लोगों को मौत के मुंह में धकेलने का एक षड्यंत्न? अनिवार्यता इसे इसलिए नहीं माना जा सकता कि एक सीट की उंगली पर मध्यप्रदेश विधानसभा का कोई गोवर्धन पर्वत नहीं टिका है.
इस अपेक्षाकृत पिछड़े जिले के मतदाता संभव है कि उतने जागरूक नहीं हों या फिर उन्हें भरोसा हो कि वे जिनकी रैलियों और सभाओं में जा रहे हैं, वे उन्हें कोरोना से बचा लेंगे! लेकिन बात अकेले दमोह की ही नहीं है. केरल, तमिलनाडु, बंगाल, पुडुचेरी और असम में भी कोरोना का प्रकोप कोई कम गंभीर नहीं है.
इन सभी प्रदेशों में इस बीमारी के शिकार पीड़ितों और मरने वालों का आंकड़ा बीते सप्ताह अपने उच्चतम शिखर पर पहुंचा है. अंतरराष्ट्रीय आपदा की इस घड़ी में हिंदुस्तान की विधानसभाओं के चुनाव अगर छह महीने से एक साल तक आगे बढ़ा दिए जाते तो भी कोई असंवैधानिक करार नहीं देता. भारतीय संविधान में इस तरह की व्यवस्थाएं हैं. इन पांचों राज्यों में आपात हालात के मद्देनजर सरकारों का कार्यकाल छह महीने या एक साल तक बढ़ाया जा सकता था. उसके लिए कैबिनेट के प्रस्ताव को संसद की स्वीकृति लेनी थी और राष्ट्रपति को उस पर मुहर लगानी थी.
स्वतंत्नता के बाद हमने देखा है कि संसद के माध्यम से लोकसभा का कार्यकाल पांच से बढ़ाकर छह साल भी किया गया है और छह साल से घटाकर पांच साल की अवधि भी की गई है. यही नहीं, पांच साल का समय पूरा होने से पहले भी चुनाव करा लिए गए हैं. पूर्व प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में समय से पहले भी चुनाव कराए गए थे. इसी प्रकार विधानसभाओं को समय से पहले बर्खास्त किया गया है और राष्ट्रपति शासन को छह-छह महीने लगाकर कई बार बढ़ाया गया है.
मध्य प्रदेश में ही सुंदरलाल पटवा की सरकार को अयोध्या प्रसंग के बाद बर्खास्त करने के बाद राष्ट्रपति शासन लगाया गया था. राष्ट्रपति शासन की अवधि भी कई बार बढ़ाई गई थी. अगर केंद्र सरकार संबंधित राज्यों में चुनी हुई सरकारों को एक साल तक और हुकूमत नहीं करने देना चाहती थी तो उनके पांच साल पूरे होते ही राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता था.
हालात सामान्य होते ही नई तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग कर सकता था. कुल मिलाकर सारी बात इस पर आकर टिक जाती है कि संसदीय लोकतंत्न मतदाताओं के लिए मतदाताओं द्वारा बनाई गई व्यवस्था है. अगर मतदाता की जान पर ही बन आए तो लोकतंत्न किसके लिए बचेगा?