संपादकीय: संगठन में अनुशासन दिखना आवश्यक
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 28, 2019 06:32 PM2019-04-28T18:32:00+5:302019-04-28T18:32:00+5:30
लोकसभा चुनाव 2019: भारतीय जनता पार्टी में शामिल होते ही साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की भी जुबान लगातार फिसलने लगी है. समाजवादी पार्टी में आजम खान तो चुनाव आयोग की सजा भी भुगत चुके हैं.
अक्सर चुनावों के आते ही हर राजनीतिक दल में संगठनात्मक गतिविधियों का आरंभ होना सामान्य होता है. मगर चुनावों में अपनी उम्मीदों को सजाए बैठे नेताओं का आपा खोना असामान्य है और बदजुबानी तो पूर्णत: अस्वीकार्य है. अक्सर दिखता है कि कोई नेता टिकट बंटवारे में अपने आप पर नियंत्रण खो बैठता है, कोई पार्टी के प्रचार में अपनी जुबान को जरूरत से ज्यादा खोल बैठता है तो कहीं कोई संगठन की मर्यादाओं को ही ताक पर रख देता है.
दरअसल लोकतंत्र में आचार-विचार की स्वतंत्रता के साथ अनुशासन और सीमाओं को ध्यान में रखने का बहुत महत्व है. किंतु स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में बदलना आम हो चला है. पिछले दिनों टिकट बंटवारे के दौरान महाराष्ट्र कांग्रेस में औरंगाबाद जिले के अध्यक्ष अब्दुल सत्तार ने हदें पार कीं. संगठन की बड़ी जिम्मेदारी को संभालने के बाद भी सीमाएं लांघीं. दूसरी ओर कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुव्रेदी के साथ र्दुव्यवहार हुआ, जिसमें पार्टी कार्यकर्ताओं को माफी मिल गई.
सभी दलों की एक ही स्थिति
उधर, भारतीय जनता पार्टी में शामिल होते ही साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की भी जुबान लगातार फिसलने लगी है. समाजवादी पार्टी में आजम खान तो चुनाव आयोग की सजा भी भुगत चुके हैं. इन सारी परिस्थितियों में केवल कांग्रेस ने अब्दुल सत्तार को पार्टी से निष्कासित किया है और प्रियंका चतुव्रेदी ने पार्टी छोड़ी, जबकि भाजपा और सपा में बयानों को कमजोर करने की पुरजोर कोशिश जारी है. साफ है कि यह स्थिति अनुशासनहीनता को शह देने वाली है.
इसमें संगठन की मर्यादा तो दांव पर लगती ही है, उसे बचाव में खुद को किनारे करना पड़ता है. इसलिए अब जरूरी यह है कि हर राजनीतिक संगठन अपने नेताओं से अपनी मान-मर्यादा का ख्याल रखने की अपेक्षा करे. यदि किसी भी रूप में सीमा उल्लंघन होता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई में न तो संकोच किया जाए, न ही समय लगाया जाना चाहिए. कम से कम चुनाव के दौरान तो इसका उदाहरण पेश किया ही जाना चाहिए, जिससे आम जनता में राजनीतिक दलों की प्रतिष्ठा बनी रहे.
अन्यथा हर बार राजनीतिक संगठनों को असहज होना पड़ेगा और नेताओं की गलतियों का नुकसान उठाना पड़ेगा. सार्वजनिक जीवन में आचार-विचार की मर्यादा और अनुशासन सभी पर लागू होता है, जिसके लिए कोई अपवाद नहीं है.