गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: राजनीति का एकमात्र लक्ष्य सत्ता हासिल करना न हो
By गिरीश्वर मिश्र | Published: May 10, 2019 04:01 PM2019-05-10T16:01:47+5:302019-05-10T16:17:22+5:30
इस बार के चुनाव में झूठ फरेब के साथ मतदाता को रिझाने से लेकर खुले आम अनियंत्रित असंसदीय, अशिष्ट भाषा का प्रयोग (जो चरित्न हनन की कोटि में आ सकता है), असंभव वादों की भरमार, जनता को लुभाने के लिए विभिन्न तरकीबों का उपयोग, जातीय समीकरण को आधार बना कर अस्मिताओं को उभारना आदि प्रयोग में लाया जा रहा है.
गिरीश्वर मिश्र
भारत की सत्नहवीं लोकसभा का चुनाव राजनीति के दांव-पेंच के सभी पुराने किस्सों को पीछे छोड़ कई तरह के नए मानक स्थापित करता दिख रहा है. चुनाव के अब तक पांच चरण बीत चुके हैं. जनता इस दौरान नेताओं और उनके टोने-टोटके को देख-देख कितनी आजिज हो रही है इसकी पुष्टि मतदान के आगे बढ़ते चरण में क्रमश: घटते मतदान के प्रतिशत से हो रही है ( हालांकि गर्मी और कुछ अन्य कारणों को नकारा नहीं जा सकता).
इस चुनाव में भांति-भांति के नेताओं को देख जनता भौंचक्का है कि आखिर इनकी मंशा क्या है. चुनाव में प्रत्याशी बने अनगिनत नेताओं की सूची देख आम आदमी का माथा ठनक जाता है. उनमें बड़ी संख्या उनकी है जो राजनीति का क ख ग भी नहीं जानते, कई ऐसे संदिग्ध या सजायाफ्ता भी हैं जिनकी जगह सभ्य समाज में नहीं है, कुछ निर्दलीय हैं और कुछ राजनीतिक दलों के हैं जिनमें दलबदलुओं का भी अच्छा प्रतिनिधित्व है. दल भी इतने हैं कि उन्हें पहचानना कठिन हो गया है.
कभी राजनीति में नए दलों का निर्माण वैचारिक मतभेद को लेकर होता था और हार-जीत से परे हर तरह के विचार को मानने वाले जनता के सामने अपना-अपना पक्ष रखते थे और जनता के समर्थन की चाह रखते थे. धीरे-धीरे सत्ता पाने को लेकर निहायत निजी असंतुष्टि और कुंठा नए दल बनाने का कारण बनने लगी. फिर तो दलों का तांता लग गया और दल या विचारधारा या देश का सपना सब कुछ धरा रह गया. सिर्फ सत्ता में किसी भी तरह भागीदारी ही एकमात्न लक्ष्य बच गया. आज ऐसे नेताओं की बन आई है. कुछ चेहरे ऐसे दिखते हैं जो किसी भी दल की सरकार बने, सत्ता में अपनी जगह बरकरार रखते हैं.
इस बार के चुनाव में झूठ फरेब के साथ मतदाता को रिझाने से लेकर खुले आम अनियंत्रित असंसदीय, अशिष्ट भाषा का प्रयोग (जो चरित्न हनन की कोटि में आ सकता है), असंभव वादों की भरमार, जनता को लुभाने के लिए विभिन्न तरकीबों का उपयोग, जातीय समीकरण को आधार बना कर अस्मिताओं को उभारना आदि प्रयोग में लाया जा रहा है. यह देश का दुर्भाग्य है कि आज के राजनेता राजनीति को कौतुक का रूप दे कर उसकी गरिमा कम करते जा रहे हैं. कुछ अपवाद छोड़ दें तो देश, समाज और संस्कृति की चिंता से नेतागण प्राय: विमुख हैं.
जन सामान्य उनसे देश के लिए चिंतन, योजना और मार्ग दिखाने की आशा रखता है. जो सरकार का स्वप्न देख रहे हैं उनको विचार और संकल्प भी प्रस्तुत करना चाहिए. खोखले कर्मकांड, अनर्गल प्रलाप और अनावश्यक निंदा का जैसा भोंडा प्रदर्शन हो रहा है उससे राजनेताओं का कितना भला हो रहा है यह तो वे ही जानें पर जनता का समय तो नष्ट हो ही रहा है, उसके मन में राजनीति के प्रति भय पैदा हो रहा है और अविश्वास भी. राजनीति कर्मकांड नहीं है. उसके लिए निष्कपट, कर्मठ और समर्पित जीवन चाहिए.