राजेश बादल का ब्लॉग: चुनावी झुनझुने से नहीं खेलना चाहते मतदाता
By राजेश बादल | Published: January 11, 2019 05:17 AM2019-01-11T05:17:25+5:302019-01-11T05:17:25+5:30
वर्तमान विधेयक के कुछ प्रावधान और इसके सदनों में प्रस्तुत करने का तरीका भी सवाल खड़े करता है। कई सांसदों ने चर्चा के दौरान कहा कि इस महत्वपूर्ण संविधान संशोधन विधेयक की प्रति भी उन्हें पहले उपलब्ध नहीं कराई गई।
लोकसभा चुनाव सिर पर। बोतल में बंद आरक्षण का जिन्न फिर बाहर। चुनाव के बाद यह जिन्न बोतल में जाकर सो जाएगा। पांच साल बाद इसकी नींद टूटेगी। फिर यह जिन्न लोकतांत्रिक उत्पात मचाएगा। चालीस साल से यह चल रहा है। न जाने कब तक होता रहेगा। राजनीतिक नियंताओं ने इस देश के मतदाताओं के साथ भावनात्मक खेल का जो सिलसिला प्रारंभ किया है, वह कहां जाकर थमेगा -कोई नहीं बता सकता। सिस्टम डमरू बजाता है और हम ताली। संसद से पास हो जाने के बाद लोग समझ बैठे हैं कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की सारी बाधाएं दूर हो गईं हैं। हकीकत वे राजनेता और दल भी जानते हैं, जिन्होंने संसद में समर्थन दिया है। इसका लागू होना टेढ़ी खीर है। संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में संशोधन का अर्थ कानून का अमल में आ जाना नहीं है। इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप में छेद ही छेद हैं। जाहिर है कि इसे तैयार करते समय पूरी तैयारी नहीं की गई। इसका असल मकसद गरीब सवर्णो को फायदा पहुंचाना नहीं, बल्कि लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करना है। तीन राज्यों में पराजय के बाद तरकश से इस तीर को निकलना ही था।
भारतीय संविधान में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था आजादी के बाद से ही चल रही है। यह मुल्क के सारे संप्रदायों और धर्मो के लिए है। इसका उद्देश्य समाज के पिछड़े और कमजोर वर्गो को मुख्य धारा में शामिल करना है। करीब सत्तर साल इस प्रणाली का असर देखने के बाद आम अवाम और कमोबेश सभी राजनीतिक दल अब आर्थिक आधार पर आरक्षण चाहते हैं। देश के लोगों के लिए आधार सिर्फ एक ही हो सकता है। आबादी एक और संवैधानिक आधार दो - यह नहीं हो सकता। दोनों आधार अमल में लाने पर इतने अंतर्विरोध होंगे कि वह संवैधानिक व्यवस्था उपहास का केंद्र बन जाएगी।
वर्तमान विधेयक के कुछ प्रावधान और इसके सदनों में प्रस्तुत करने का तरीका भी सवाल खड़े करता है। कई सांसदों ने चर्चा के दौरान कहा कि इस महत्वपूर्ण संविधान संशोधन विधेयक की प्रति भी उन्हें पहले उपलब्ध नहीं कराई गई। यह गंभीर चूक मानी जा सकती है। किसी समिति ने इस विधेयक के ड्राफ्ट को मंजूरी नहीं दी। उस पर सुझाव और आपत्तियों को कोई स्थान नहीं मिला। क्या ही विचित्न संयोग है कि जिस दिन लोकसभा में इस पर चर्चा हुई, उसी दिन सरकार ने प्रश्न क्रमांक 4475 के उत्तर में कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रस्ताव सरकार के समक्ष विचाराधीन नहीं है। इसे सरकार के अंदर आंतरिक संवादहीनता कहा जाए अथवा कोई और त्नुटि। विधेयक में कहा गया है कि आठ लाख रुपए सालाना आमदनी वाले गरीब माने जाएंगे। अगर यह स्थिति है तो उन्हें पहले आयकर से छूट मिलनी चाहिए। कोई अपनी आमदनी पर टैक्स देता हो तो उसे गरीब की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है? सरकार को गरीबी की अपनी परिभाषा का मानकीकरण करना होगा।
विधेयक में एक प्रावधान पांच एकड़ जमीन का है। पांच एकड़ तक जमीन के मालिक गरीब की श्रेणी में आएंगे। भारत के तमाम राज्यों में पांच एकड़ जमीन के मायने अलग-अलग हैं। बुंदेलखंड की पथरीली जमीन का किसान पांच एकड़ जमीन से साल भर में एक लाख रुपए भी बमुश्किल कमाता है और मालवा का किसान कई लाख रुपए कमाता है। आंध्र प्रदेश के अनेक इलाकों में पांच एकड़ का अर्थ अलग है और पंजाब जैसे अमीर राज्य में पांच एकड़ जमीन का मतलब करोड़पति होना है। इससे क्या समझा जाए? क्या इससे एक अलग वर्ग संघर्ष की आशंका नहीं जन्म लेती? ऐसा ही नगर पालिका और ग्राम पंचायत क्षेत्नों में 1000 वर्ग फुट, 200 गज और 100 गज के घर का है। एक ही गांव, कस्बे और शहर के अलग-अलग इलाकों में जमीन और घर की कीमतें अलग-अलग होती हैं। एक शहर के किसी हिस्से में 1000 वर्ग फुट जमीन वाले फ्लैट अथवा घर की कीमत पांच लाख भी हो सकती है और एक करोड़ भी। इस हालत में आरक्षण का असल जरूरतमंद कौन है -इसकी पहचान कौन करेगा और कैसे करेगा - यह भी एक कठिन स्थिति है।
सारे पहलुओं पर विचार किए बिना विधेयक को लाने का आशय सिर्फ आने वाले लोकसभा चुनाव का संकट है। इस नाजुक अवसर पर कोई भी पॉलिटिकल पार्टी विधेयक के छेदों पर नजर डालती और विरोध करती तो उसे सवर्ण विरोधी मान लिया जाता। इसके बाद चुनाव प्रचार में उस पार्टी के खिलाफ इसे हथियार बनाया जाता इसलिए अन्य राजनीतिक दलों ने कसमसाते हुए इस पर अपनी रजामंदी दी है। भारतीय लोकतंत्न का यह विद्रूप चेहरा दिखाता है कि सत्तर साल बाद भी हम देश हित को अपने समाज, जाति और धर्म के सामने ताक में रख देते हैं।