अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः बहुलता चाहिए राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए! 

By अभय कुमार दुबे | Published: March 27, 2019 12:59 AM2019-03-27T00:59:14+5:302019-03-27T00:59:14+5:30

कहने के लिए भाजपा पूरे देश के पैमाने पर राजग के नेतृत्वकारी दल की हैसियत से चुनाव लड़ रही है, लेकिन ऐसा उसने केवल बिहार के संदर्भ में ही करना क्यों पसंद किया?

lok sabha election: To become a national party should pluralize | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः बहुलता चाहिए राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए! 

अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः बहुलता चाहिए राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए! 

भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरीके से अपने टिकटों की घोषणा की है, उससे लगता है कि उसके भीतर एक से ज्यादा पार्टियां छिपी हुई हैं. पहले इस पार्टी ने अलग से अपनी 184 सीटों की घोषणा की. उसी दौरान यह जानकारी दी कि बिहार की सीटों के लिए भी उम्मीदवारों के नामों को अंतिम रूप दिया जा चुका है, लेकिन उनकी घोषणा पटना में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (राजग) द्वारा की जाएगी. 

कहने के लिए भाजपा पूरे देश के पैमाने पर राजग के नेतृत्वकारी दल की हैसियत से चुनाव लड़ रही है, लेकिन ऐसा उसने केवल बिहार के संदर्भ में ही करना क्यों पसंद किया? इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश में ही साफ दिखाई पड़ जाता है कि बिहार में भाजपा का किरदार और ढांचा एकल पार्टी के रूप में भाजपा की निरंतर विकसित होती संरचना से किस तरह अलग है.

इस भिन्नता को केवल राज्यवार रणनीति के बीच अंतर के रूप में देखना उचित नहीं होगा. दरअसल, देश के बाकी हिस्सों में औपचारिक रूप से गठजोड़ का अंग होने के बावजूद भाजपा अपनी नुमाइंदगी करने का अधिकार केवल अपने पास ही रखना चाहती है. और, इस तरह वह अपना अलग वजूद रेखांकित करने की इच्छुक नजर आती है. लेकिन, बिहार के मामले में यह अधिकार वह राजग को देने के लिए तैयार है. इसका मतलब यह निकलता है कि बिहार में भाजपा की राजनीति के भीतर आज भी आडवाणी युग के वे अवशेष देखे जा सकते हैं जब भाजपा राजग के आईने में ही अपना चेहरा दिखाना पसंद करती थी. उन दिनों तो भाजपा ने अपना घोषणापत्र भी जारी करने से इंकार कर दिया था. वह राजग के घोषणापत्र के जरिये ही अपनी राष्ट्रीय नुमाइंदगी करना पसंद करती थी.  

बिहार में भाजपा के टिकट-वितरण पर पहली नजर डालते ही स्पष्ट हो जाता है कि उसने तीन या चार टिकटों को छोड़ कर अपनी सभी सीटें ऊंची जातियों को दी हैं. कमजोर जातियों को वोटरों की तरह गोलबंद करने की जिम्मेदारी उसने नीतीश कुमार और रामविलास पासवान की पार्टियों पर छोड़ दी है. यानी बिहार में भाजपा मुख्य तौर पर द्विजों, कायस्थों और भूमिहारों की पार्टी है और मोटे तौर पर फिलहाल वही रहना भी चाहती है. 

न केवल यह, बल्कि एकबारगी ऐसा भी लगता है कि भाजपा ने बिहार के स्तर पर कमजोर जातियों की स्वतंत्र नुमाइंदगी करने की महत्वाकांक्षा को फिलहाल स्थगित कर रखा है. इसके विपरीत उत्तर प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्य में ऊंची जातियों का ठोस समर्थन लगभग स्थायी रूप से जीतने के बावजूद पूरी तरह से अपने चेहरे का ओबीसीकरण करती हुई नजर आती है. बिहार के विपरीत उत्तर प्रदेश में भाजपा की जद्दोजहद भी यही रही है कि कैसे वह ब्राrाण-बनिया पार्टी होने की सीमाओं का अतिक्रमण करे, और ऊंची जातियों का उसका समर्थन-आधार भी कमजोर न होने पाए. 

बात केवल बिहार और उत्तर प्रदेश की ही नहीं है. भाजपा के भीतर और भी कई भाजपाएं हैं जो बनने के दौर में हैं. मसलन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब तमिलनाडु जाते हैं तो सार्वजनिक मंच से अंग्रेजी में भाषण देते हैं. वहां भाजपा न तो अपनी हिंदू पार्टी की छवि को उभारने की कोशिश करती है और न ही हिंदी समर्थक पार्टी की. 

बात यह नहीं है कि तमिलनाडु में हिंदू राजनीति का कोई इतिहास नहीं रहा है. वहां 1980 में ही हिंदू मुन्नानी का गठन हो गया था. चूंकि भाजपा ने राज्य के स्तर पर हिंदू राजनीति का झंडा बुलंद करने में संकोच दिखाया, इसलिए उसी का एक हिस्सा टूट कर हिंदू मक्कल काची के रूप में वहां सक्रिय है. लेकिन, तमिलनाडु की भाजपा इन कट्टर हिंदू प्रवृत्तियों से अलग वहां की राजनीति पर हावी द्रविड़ मुहावरे के भीतर अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है. इसलिए वह कभी अन्नाद्रमुक से समझौता करती है, तो कभी द्रमुक से. 

खास बात यह है कि तमिलनाडु में अपने हिंदू चेहरे को दिखाने में संकोच करने वाली भाजपा दक्षिण भारत के दो अन्य प्रदेशों, कर्नाटक और केरल, में इसे प्रदर्शित करने में कतई नहीं हिचकती. तमिल भाजपा अगर भाजपा की एक तीसरी किस्म है तो नगालैंड और मिजोरम की भाजपा उसकी चौथी किस्म है. उत्तर-पूर्व के सात राज्यों में शामिल इन दो राज्यों में भाजपा ईसाई चर्च और अंग्रेजी भाषा की राजनीति करती नजर आई है. वह जानती है कि अगर नगाओं और मिजो लोगों के बीच जगह बनानी है तो उसे अपनी ¨हंदू छवि को ठंडे बस्ते में डालना होगा. 

भाजपा जैसे-जैसे अपनी यह बहुवचनीयता बढ़ाती जाएगी, वैसे-वैसे एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उसकी दावेदारियां मजबूत होती जाएंगी. ध्यान रहे कि एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस की बहुवचनीयता का चरित्र भाजपा से अलग तरह का है. कांग्रेस की बहुवचनीयता राष्ट्रीय आंदोलन की देन थी जब बीसवीं सदी में गांधी ने अलग-अलग भाषाई क्षेत्रों में कांग्रेस के मुख्यालय बनाने की उपनिवेशवाद विरोधी रणनीति बनाई थी. भाजपा आजादी से पहले की राजनीतिक प्रक्रियाओं की देन नहीं है. इसलिए उसे अलग तरह से अपनी बहुवचनीयता प्राप्त करनी पड़ रही है.

Web Title: lok sabha election: To become a national party should pluralize