अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग: संसद के प्रति जवाबदेही से सुदृढ़ होंगी संस्थाएं
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 7, 2019 06:07 AM2019-04-07T06:07:38+5:302019-04-07T06:07:38+5:30
10 मई 2011 को खुद भाजपा के वरिष्ठ नेता और लोकलेखा समिति के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. मुरली मनोहर जोशी ने सीबीआई को सरकारी नियंत्नण से मुक्त करने के लिए कानून बनाकर इसे संसद के प्रति उत्तरदायी बनाने की मांग की थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद सीबीआई को स्वायत्तता देने की ठोस पहल नहीं हुई.
अपने चुनाव घोषणापत्न में कांग्रेस ने जबसे सरकारी हस्तक्षेप और विवादों में घिरे कई प्रमुख संस्थानों की रक्षा और उसे मजबूत करने का वादा किया तो कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. सभी दल चुनावों में वोटरों को रिझाने के लिए कई तरह के वादे करते हैं लेकिन यह वादा खास है कि कांग्रेस सत्ता में आती है तो भारतीय रिजर्व बैंक, केंद्रीय सतर्कता आयोग, भारत निर्वाचन आयोग, केंद्रीय जांच ब्यूरो, केंद्रीय सूचना आयोग, प्रवर्तन निदेशालय, राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं की गरिमा, स्वतंत्नता और स्वायत्तता की बहाली सुनिश्चित करते हुए इसे संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाएगा.
इनकी नियुक्ति और चयन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के साथ यह वादा भी किया गया है कि संसद में किसी विधेयक का मसौदा रखने के पहले व्यापक सार्वजनिक विमर्श होगा.
बेशक बीते दशकों में ये संस्थाएं कई कारणों से कमजोर हुईं और इनकी नियुक्तियों से लेकर रोजमर्रा के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप ने इनकी स्वायत्तता प्रभावित की है. भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक दल इसके दुरुपयोग के आरोपी रहे हैं. संसदीय निगरानी से इनको एक नई ताकत मिलेगी इसमें संदेह नहीं है. हाल के वर्षो में सबसे अधिक विवाद केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई को लेकर उठे हैं.
10 मई 2011 को खुद भाजपा के वरिष्ठ नेता और लोकलेखा समिति के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. मुरली मनोहर जोशी ने सीबीआई को सरकारी नियंत्नण से मुक्त करने के लिए कानून बनाकर इसे संसद के प्रति उत्तरदायी बनाने की मांग की थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद सीबीआई को स्वायत्तता देने की ठोस पहल नहीं हुई.
सीबीआई दरअसल कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के तहत काम करती है और सरकारी दखल कोई छिपी बात नहीं रह गई है. इसका दायरा जरूर विस्तारित होता रहा लेकिन उसके साथ विवादों की विरासत भी. यही कारण है कि त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मिजोरम जैसे राज्यों ने पहले दी गई आम सहमति को वापस ले लिया. सीबीआई को चुनाव आयोग जैसी स्वायत्तता देने की मांग उठी. इसके पास लंबित मामलों की बड़ी संख्या है व स्टाफ की कमी से लेकर तमाम दिक्कतें हैं.
सूचना अधिकार आयोग हालांकि बेहतर स्थिति में है, लेकिन हाल के वर्षो में आरटीआई की धार कुंद करने की कोशिशें हुई हैं. फिर भी इसने नागरिकों के जीवन पर बड़ा असर डाला है. ऑनलाइन आरटीआई के बाद से सूचना मांगनेवालों की संख्या में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई है. फिर भी राज्यों में आधारभूत ढांचे और नियुक्तियों की गुणवत्ता को लेकर सवाल उठते रहे हैं. केंद्रीय सूचना आयोग पर नौकरशाही हावी है और नौकरशाहों के लिए यह संस्था रिटायरमेंट के बाद चरागाह सी बनती जा रही है.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर भी तमाम सवाल उठे हैं. रघुराम राजन की विदाई के बाद सरकार की पसंद से इसकी बागडोर थामने वाले उर्जित पटेल नोटबंदी जैसे मामलों में वही करने को विवश हुए जो सरकार ने कहा, लेकिन वे भी बहुत लंबे समय तक दबाव ङोल नहीं पाए. आरबीआई और सरकार के बीच विवाद इतना गहराया कि 61 साल में पहली बार गवर्नर का इस्तीफा हुआ.
आरबीआई के कैपिटल रिजर्व से धन की मांग पर मामला गहराया व सरकार ने आरबीआई एक्ट की धारा 7 का इस्तेमाल किया, जिसके विरोध में आठ महीने पहले ही उर्जित पटेल ने इस्तीफा दे दिया.
खुद चुनाव आयोग तक को सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे जाकर गुहार लगानी पड़ी कि उसे चुनाव से जुड़े नियमों को बनाने की शक्तियां मिलें और सुप्रीम कोर्ट, सीएजी, राज्यसभा और लोकसभा की तरह उसका अलग सचिवालय बने और इनकी तर्ज पर कोष भी तय हो.
भारत के नियंत्नक महालेखापरीक्षक यानी सीएजी सरकारी नियंत्नण से परे अपनी साख बरकरार रख पाया है क्योंकि इसकी अलग हैसियत है. सीएजी को हटाने की शक्ति संसद के पास ही है. इसके पास व्यापक प्रशासनिक शक्तियां हैं. संविधान के अनुच्छेद 312 के तहत संसद को अखिल भारतीय सेवाओं के लिए नियुक्त लोगों की भर्ती और सेवा की शर्तो का विनियमन का अधिकार है.
वैसे तो संवैधानिक संस्था के तौर पर राष्ट्रपति, संसद, राज्यपाल और विधान मंडलों का अपना महत्व है लेकिन निर्वाचन आयोग, सीएजी और सिविल सेवा जैसी कई संस्थाओं की स्वतंत्नता गतिशील लोकतंत्न के लिए जरूरी है. संसदीय नियंत्नण या उसके प्रति जवाबदेह संस्थाएं बेहतर दशा में हैं.
हमारा संविधान सर्वोपरि है. संसद संवैधानिक सत्ता का मुख्य स्त्नोत है और सर्वोच्च संप्रभु संस्था है. यह विधि निर्मात्नी भी है, जिसे संविधान संशोधन तक का अधिकार है. संसद संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत प्रदत्त विभिन्न विषयों के अलावा सामान्य स्थितियों में केवल राज्यों के लिए आरक्षित विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार रखती है. वित्तीय मामलों में लोकसभा सर्वोपरि है जबकि राज्य सूची के विषय पर कानून बनाने में राज्यसभा की विशेष भूमिका है. राज्यसभा अखिल भारतीय सेवा के गठन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
संसद भारत के लोकतंत्न का केंद्र बिंदु है. लगातार परिपक्व होते लोकतंत्न में संसद सबसे ताकतवर बनी हुई है. अगर कांग्रेस घोषणापत्न में शामिल संस्थाओं को संसद की मदद से एक नई शक्ति मिलती है तो निश्चय ही इनको और शक्तिशाली बनाने में मदद मिलेगी.