क्या बेगूसराय का 'कन्हैया मॉडल' वामपंथ की राजनीति का अंतिम प्रयोग है?
By विकास कुमार | Published: April 26, 2019 11:36 AM2019-04-26T11:36:19+5:302019-04-26T12:21:01+5:30
अपनी भाषणबाजी कला के लिए मशहूर कन्हैया युवाओं को वामपंथ के एक्टिविज्म का विराट स्वरूप दिखाना चाहते हैं और उन्हें इस काम में उनके वैचारिक कुनबे का पूरे देश से समर्थन मिल रहा है. तभी तो मात्र 5 दिनों में कन्हैया कुमार जैसे गुदड़ी के लाल को 70 लाख रुपये की ऑनलाइन फंडिंग मिल जाती है.
देश की राजनीति में वर्षों तक मुख्य विपक्ष का किरदार निभाने वाली वामपंथी पार्टियां आज हाशिये पर हैं. सामाजिक आंदोलनों के जरिये ख़ुद को जिंदा रखने का उनका प्रयास भी फेल हो चुका है. ऐसे में जेएनयू विश्वविद्यालय से निकले वामपंथ राजनीति के पोस्टर बॉय कन्हैया कुमार आज लाल सलाम के अंतिम लाल के रूप में दिख रहे हैं. कभी पूरब के लेनिनग्राद रहे बेगूसराय के जरिये एक बार फ़िर वामपंथ को जिंदा करने का अंतिम प्रयास किया जा रहा है.
'द लास्ट होप' की शूटिंग
अपनी भाषणबाजी कला के लिए मशहूर कन्हैया युवाओं को वामपंथ के एक्टिविज्म का विराट स्वरुप दिखाना चाहते हैं और उन्हें इस काम में उनके वैचारिक कुनबे का पूरे देश से समर्थन मिल रहा है. तभी तो मात्र 5 दिनों में कन्हैया कुमार जैसे गुदड़ी के लाल को 70 लाख रुपये की ऑनलाइन फंडिंग मिल जाती है. स्वरा भास्कर, जावेद अख्तर, शबाना आजमी, प्रकाश राज, योगेन्द्र यादव और सीताराम येचुरी जैसे तमाम वैचारिक सिपाही 'द लास्ट होप' फ़िल्म की शूटिंग के सिलसिले में बेगूसराय का दौरा कर चुके हैं.
बेगूसराय से महागठबंधन के उम्मीदवार और पिछले लोकसभा चुनाव में मात्र 58 हजार वोटों से हारने वाले तनवीर हसन चीख-चीख कर कह रहे हैं कि इस सीट पर मुकाबला उनके और बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह के बीच में ही है लेकिन मीडिया के दुलारे कन्हैया कुमार ने उन्हें पॉलिटिकल नैरेटिव से बहुत दूर फेंक दिया है. स्थिति यहां तक बन गई कि ख़ुद तेजस्वी यादव ने सीपीआई को एक जिले और एक जात की पार्टी कह दिया. जिला मतलब बेगूसराय और जात से उनका तात्पर्य भूमिहार रहा होगा.
वामपंथ का राजनीतिक ढलान
एंटी-एस्टाब्लिश्मेंट की बात करने वाले वामपंथी आज ख़ुद को राजनीतिक रसातल से निकालने के लिए कांग्रेस और उन तमाम दलों की गोद में भी बैठने को तैयार हैं जिनके ख़िलाफ़ इन्होंने वर्षों तक संघर्ष किया है.आश्चर्य तो तब होता है जब पता चलता है कि दिल्ली में मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले तमिलनाडु के किसान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन भारतीय किसान संघ से जुड़े हुए थे, ऐसे में किसी भी वामपंथी आंदोलन की बात बीते 5 वर्षों में नाकाफी ही लगती है.
सरकार की नीतियों और योजनाओं के ख़िलाफ़ वामपंथ का पॉलिटिकल नैरेटिव कहीं भी मजबूती से खड़ा नहीं दिखता. चंद संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाये तो कम्युनिज्म आज भारत में अपनी अंतिम साँसें गिनता हुआ प्रतीत होता है. एक ऐसे देश में जहां की 30 प्रतिशत आबादी आज भी भयंकर ग़रीबी में जीने को मज़बूर है, वहां वाम दलों का यूं हाशिये पर चले जाना उन्हें गंभीर आत्मचिंतन का एहसास दिलाता है.
स्वधर्म की खोज
वामपंथ की बुनियाद अगर नास्तिकता है तो भारत में इसके फलने-फूलने के तमाम अवसर आज भी उपलब्ध हैं क्योंकि यह देश कभी भी मूल रूप से धार्मिक रहा ही नहीं. लेकिन किसी भी विचारधारा को जिंदा रखने के लिए स्वधर्म की खोज जरूरी है और बीते कुछ वर्षों में वामपंथ यही चुकता हुआ प्रतीत होता है. तभी तो बीते साल पोलित ब्यूरो के सम्मलेन में सीताराम येचुरी और प्रकाश करात में कांग्रेस के साथ जाने को लेकर एक स्पष्ट टकराव देखने को मिला था.