ब्लॉग: निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव चिंतनीय
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: September 3, 2024 10:15 AM2024-09-03T10:15:56+5:302024-09-03T10:22:20+5:30
जिला न्यायालय काम के बोझ से तो दबे हुए हैं ही, वे पुरानी खस्ताहाल इमारतों में चल रहे हैं। वहां न अच्छे प्रसाधनगृह हैं, न हवादार कमरे हैं, न पर्याप्त साफ-सफाई है और न ही न्यायिक अधिकारी के लिए आरामदेह कक्ष और लाइब्रेरी है।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने जहां न्यायपालिका में ‘तारीख पे तारीख’ की संस्कृति पर गहरा अफसोस जताया है तो देश के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाओं का व्यवस्थित ढांचा खड़ा करने पर जोर दिया है। दोनों ही दिग्गजों ने दुनिया में सर्वश्रेष्ठ समझी जानेवाली हमारी न्याय व्यवस्था की कुछ ऐसी कमजोरियों की ओर संकेत किया है जिन्हें तत्काल दूर किया जाना चाहिए।राष्ट्रपति मुर्मु तथा प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने जिला न्यायालयों के अधिवेशन को संबोधित करते हुए न्याय व्यवस्था में निचली अदालतों के महत्व पर जोर दिया।
हमारी न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह सुनिश्चित करती है कि किसी निर्दोष को सजा न होने पाए। ऐसे में न्यायदान की प्रक्रिया में विलंब होना स्वाभाविक है लेकिन यह विलंब अगर व्यवस्था का अभिन्न अंग बन जाए तो फिर पूरे ढांचे को जर्जर होने में देर नहीं लगती। इसके अलावा निचली अदालतों में कर्मचारियों, वादियों-प्रतिवादियों, वकीलों से लेकर मजिस्ट्रेटों के लिए बुनियादी सुविधाओं का बेहद अभाव है।
जिला न्यायालय काम के बोझ से तो दबे हुए हैं ही, वे पुरानी खस्ताहाल इमारतों में चल रहे हैं। वहां न अच्छे प्रसाधनगृह हैं, न हवादार कमरे हैं, न पर्याप्त साफ-सफाई है और न ही न्यायिक अधिकारी के लिए आरामदेह कक्ष और लाइब्रेरी है। जिला तथा सत्र न्यायालयों के साथ-साथ दीवानी अदालतों के भवनों तथा वहां आने-जाने वाले लोगों, न्यायायिक अधिकारियों, वकीलों के लिए न्यूनतम सुविधाएं नदारद रहती हैं। कई अदालतों को नए भवनों में स्थानांतरित किया गया है, लेकिन शायद निचली अदालतों को कमतर आंकने के कारण भवनों का स्तर बहुत अच्छा नहीं है और न ही वहां स्तरीय सुविधाएं उपलब्ध हैं।
न्यायिक अधिकारी तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने कर्तव्य का निर्वहन दक्षता तथा समर्पण भाव से कर रहे हैं ताकि उनके पास न्याय की उम्मीद से आने वाला कोई व्यक्ति निराश होकर न जाए। मजिस्ट्रेटों, जजों को फैसला सुनाने के लिए कई महीनों ही नहीं, वर्षों तक मामलों की सुनवाई करनी पड़ती है, इस बीच अगर संबंधित कानूनों में कोई बदलाव किया जाता है तो उसके बारे में भी अद्यतन जानकारी रखनी पड़ती है और इन सबके बाद गहन चिंतन-मनन एवं अध्ययन के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है।
जब तक निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के लिए लाइब्रेरी सहित सुविधाजनक कक्ष व अन्य बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक उनके लिए किसी भी मुकदमे पर गंभीरता से चिंतन करना संभव नहीं है। इससे न्यायदान की प्रक्रिया प्रभावित होने की आशंका रहती है, फैसला लेने में गलती की संभावना बढ़ जाती है।
देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, जिला तथा सत्र न्यायालयों की इमारतें खड़ी मिल जाएंगी। बाहर से कई इमारतें भव्य नजर आती हैं, मगर भीतर घुसने पर किसी भी प्रकार की बुनियादी सुविधा नजर नहीं आती। देश की अदालतों में इस वक्त चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। लोक न्यायालय का प्रयोग मुकदमों की संख्या कम करने में ज्यादा कारगर साबित नहीं हो सका है। मुकदमों का सबसे ज्यादा बोझ निचली अदालतों पर है। ये अदालतें न्यायिक अधिकारियों की कमी से जूझ रही हैं तो मजिस्ट्रेटों, जजों को कार्यस्थल पर काम के अनुकूल माहौल नहीं मिल पा रहा है।
ऐसा नहीं है कि उच्च न्यायालयों तथा सुप्रीम कोर्ट में सुविधाओं का अंबार है लेकिन वहां स्थिति कुछ हद तक बेहतर है लेकिन निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाओं की कमी इतनी ज्यादा है कि आप कल्पना नहीं कर सकते। निचली अदालतों में जाने के बाद, वहां के हालात देखकर आश्चर्य होता है कि न्यायिक अधिकारियों को इतनी अव्यवस्था के बीच न्यायदान जैसी गहन चिंतनवाली प्रक्रिया के लिए काम करना पड़ता है। प्रधान न्यायाधीश ने एक ज्वलंत मसले की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करवाया है। केंद्र तथा राज्य सरकारों को युद्ध स्तर पर निचली अदालतों की दशा सुधारने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।