कृष्णा सोबती (1925-2019): जिनकी कहानियों में मेरे अपने दर्द को पनाह मिली
By सुमन परमार | Published: January 25, 2019 04:28 PM2019-01-25T16:28:49+5:302019-01-25T16:37:49+5:30
कृष्णा सोबती (18 फरवरी 1925 - 25 जनवरी 2019) ज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार सम्मानित थीं। मित्रो मरजानी, ऐ लड़की और ज़िंदगीनामा उनकी मशहूर रचनाएँ हैं।
दफ़्तर में एक दिन शाम को काम करते वक़्त अचानक फोन की घंटी बजी। मुझे कहा गया कि शाम कृष्णा सोबती जी से मिलने जाना है, उनके घर पर। मैं सहम गई। मेरे डेस्क पर 'सूरजमुखी अंधेरे के' रखी थी। किसी अपने ने कहा था कि इसे जरूर पढ़ना। मैंने कुछ ही दिन पहले यह उपन्यास पढ़ना शुरू किया था।
प्रकाशन जगत में काम करने का एक फायदा यह मिला कि कृष्णा जी से उनके घर पर उनसे मुलाकात हुई। अपने प्रिय लेखक से मिलने से मैं हमेशा से डरती रही हूँ। लेकिन कृष्णा जी से मिलना किसी सपने के पूरे होने से भी ज्यादा बड़ी बात थी। वो पोटली बाबा की तरह अतीत से किस्से निकाल- निकाल कर सुनाती जाती और मैं उनकी कहानियों के किरदारों को उनके उन किस्सों में फिट करती जाती...
मैं दिल्ली पढ़ने आयी थी, बिना किसी सपने के। दिल्ली आने का एक ही मकसद था कि मुझे वो सब नहीं करना जो मुझसे बड़ी बहनों को करना पड़ा। मैं अपने भाई और पिता की सत्ता से बाहर निकलने के लिये कुछ भी कर सकती थी।
दिल्ली विश्वविद्यालय में कदम रखने के बाद कॉलेज लाइब्रेरी मेरा घर बन गया। पहले ही दिन लाइब्रेरी में 'ज़िंदगीनामा' मेरे हाथ लग गयी। उसके एक-एक पन्ने के साथ जितना मैं विभाजन की त्रासदी के चित्र को मन में सजीव करती जाती, उतना ही मैं कृष्णा के मोहपाश में भी बंधती जाती थी।
उस उपन्यास ने मेरे अंदर बहुत कुछ बदल दिया था। कृष्णा जी की कहानियों में मेरे अपने दर्द को पनाह मिलने लगा था।
उम्र के नौवें दशक में भी वो अपने आसपास की राजनीति और साहित्य को लेकर काफी सजग थीं। जब पूरे देश में वर्तमान सरकार की नीतियों के खिलाफ़ लेखकों, कलाकारों ने आवाज़ बुलंद की तो, सालों से घर से बाहर नहीं निकलने वाली कृष्णा जी, बाहर आयीं और सार्वजनिक मंच पर खड़े होकर प्रतिरोध के आवाज़ में स्वर मिलाया। उन्होंने एक बड़ा लेख लिखकर अपना प्रतिरोध जाहिर किया और पद्म विभूषण लेने से भी इंकार कर दिया था।
स्कूल में विभाजन पर कृष्णा सोबती की एक कहानी पढ़ी थी। कहानी का नाम था 'सिक्का बदल गया' उसकी एक पंक्ति मेरे जेहन में हमेशा के लिये बस गई - 'तैनू भाग जगन चन्ना'
ये शब्द शाहनी उस बेटे समान लड़के को कहती है जिसकी नज़र साहनी की हवेली पर है, और जिसकी वजह से उसे मजबूरन अपनी मिट्टी को छोड़कर जाना पड़ रहा है। साहनी ये सारी बातें जानती है। लेकिन जाते-जाते भी वो उसे दिल से दुआ ही दे पाती है!
आज वो शाहनी अपनी हवेली को छोड़ हमेशा के लिये चली गयी। जिस लेखक ने मेरे अंदर पढ़ने की ललक को पैदा किया आज वो हमेशा के लिये चली गयीं।
कृष्णा सोबती को सादर नमन।