कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: संस्कृत को दुश्मनों की क्या दरकार?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 22, 2019 01:50 PM2019-11-22T13:50:05+5:302019-11-22T13:50:05+5:30

संस्कृत जैसी समर्थ भाषा को, जिसकी कई मायनों में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा तक प्रशंसक है

Krishna Pratap Singh Blog: Why does Sanskrit need enemies? | कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: संस्कृत को दुश्मनों की क्या दरकार?

कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: संस्कृत को दुश्मनों की क्या दरकार?

Highlightsजिन महादेवी वर्मा को आज हम हिंदी की विख्यात कवयित्री, विचारक और लेखिका के रूप में जानते हैं, बीएचयू के इसी संस्कृत विभाग में उन्हें एमए करने की इजाजत नहीं दी गई थीफिरोज खान के पिता भी संस्कृत के ज्ञाता और गौ सेवक थे, जबकि दादा भजन गाया करते थे.

पिछले दिनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में एक मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति हुई तो संस्कृत छात्रों की भावनाएं भड़क उठीं और उन्होंने इसके खिलाफ इस तरह मोर्चा खोल दिया, जैसे किसी महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हों. विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय के अनुगामी होने का दावा करने वाले इन छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन की इस सफाई को भी स्वीकार करना गवारा नहीं कि उक्त शिक्षक की नियुक्ति में किसी प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं किया गया. नियुक्त मुस्लिम प्राध्यापक की यह दलील भी नहीं कि उनका संस्कृत का ज्ञान अधकचरा नहीं है. उनके पिता भी संस्कृत के ज्ञाता और गौ सेवक थे, जबकि दादा भजन गाया करते थे. उलटे प्रतिप्रश्न पूछते रहे कि कोई मुस्लिम शिक्षक कैसे हमें संस्कृत पढ़ा या हमारा धर्म सिखा सकता है?

संस्कृत जैसी समर्थ भाषा को, जिसकी कई मायनों में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा तक प्रशंसक है, अपने धर्म से जोड़कर देखने वाले इन संस्कृत छात्रों के बुद्धि-विवेक पर तरस खाने से पहले कुछ और चीजें जान लेनी चाहिए. जिन महादेवी वर्मा को आज हम हिंदी की विख्यात कवयित्री, विचारक और लेखिका के रूप में जानते हैं, बीएचयू के इसी संस्कृत विभाग में उन्हें एमए करने की इजाजत नहीं दी गई थी. कारण यह कि वे गैरब्राह्मण और महिला थीं. लेकिन इससे यह समझना गलत होगा कि बीएचयू तब से अब तक वहीं खड़ा है. बाद में कई बड़े विद्वान व बुद्धिजीवी प्रोफेसर उससे जुड़े और उन्होंने उसे विरासत में मिली संकीर्णताओं से उबारने की कोशिश भी की. ऐसा नहीं होता तो प्रोफेसर शांतिस्वरूप भटनागर अपने कुलगीत में इसे ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी’ क्यों कहते?

फिर भी यह सर्वविद्या की राजधानी ज्ञान, विवेक, स्वतंत्रता और संस्कृति की अनुपमेय केंद्र नहीं बन पा रही और इस न बन पाने में ही अपना बड़प्पन मानती है, तो इसका बड़ा कारण यह है कि पिछले दशकों में न सिर्फ इस विश्वविद्यालय बल्कि हमारे समूचे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक जीवन में ऐसे तत्व केन्द्रीय भूमिका में आ गए हैं, जो समय के पहिये को उसकी उलटी दिशा में घुमाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहते हैं.

क्या ही अच्छा हो कि ये छात्र अपनी मुक्ति के लिए संस्कृत के साथ थोड़ा बहुत राहुल सांकृत्यायन और आचार्य विनोबा भावे को भी पढ़ें. राहुल सांकृत्यायन उन्हें यह सिखा सकते हैं कि किसी के विचारों को अपने पार उतरने के लिए बेड़े की तरह अपनाना चाहिए, न कि बोझ की तरह सिर पर उठाए फिरने के लिए, जबकि विनोबा का मत यह है कि ग्रंथों व गुरुओं की बातों को अपने विवेक की कसौटी पर कसकर माना जाए तो कहीं कोई झगड़ा ही न रह जाए.

Web Title: Krishna Pratap Singh Blog: Why does Sanskrit need enemies?

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