कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: आजादी की जंग में है 10 मई का अविस्मरणीय स्थान
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: May 10, 2021 03:36 PM2021-05-10T15:36:24+5:302021-05-10T15:36:24+5:30
एक शताब्दी पहले 1757 में प्लासी की ऐतिहासिक लड़ाई में राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों की जीत के बाद से देश की छाती पर मूंग दलती आ रही थी।
हमारी आज की युवा पीढ़ी के ज्यादातर सदस्यों को शायद ही मालूम हो कि कभी 10 मई की तारीख भारत का राष्ट्रीय त्यौहार हुआ करती थी और यह आती थी तो हर हिंदुस्तानी ये पंक्तियां दोहराने में गर्व का अनुभव करता था- ‘ओ दर्दमंद दिल दर्द दे चाहे हजार, दस मई का शुभ दिन भुलाना नहीं। इस रोज छिड़ी जंग आजादी की, बात खुशी की गमी लाना नहीं।
लेकिन आज की परिस्थितियों में देखें तो यह तारीख हमारे पहले स्वतंत्नता संघर्ष के लिहाज से यानी अपने ऐतिहासिक महत्व के कारण ही महत्वपूर्ण नहीं है, कोरोना वायरस के संक्रमण से त्नस्त देश की उससे लड़ने की प्रेरणा भी हो सकती है ओर हौसला भी। दरअसल, 1857 में अंग्रेजों की सेना के देसी सिपाहियों ने राजधानी दिल्ली से 60-70 किमी दूर स्थित मेरठ छावनी में दस मई को ऐसे ही त्नास के माहौल में गुलामी से मुक्ति के लिए पहला सशस्त्न अभियान शुरू किया था।
उस दस मई को रविवार था। गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने से इनकार के बाद से ही न सिर्फ निर्मम कोर्ट मार्शल, बल्कि गंभीर मान-मर्दन ङोल रहे अपने 85 साथियों को जेल तोड़कर छुड़ाने, इसमें बाधक बने अंग्रेज अफसरों को जान से मारने और उनके बंगले फूंकने के बाद देसी सिपाही अपनी जीत का बिगुल बजाते हुए अगले दिन दिल्ली आ पहुंचे थे।
फिर तो अंग्रेजों द्वारा अपदस्थ कर दिए गए सम्राट बहादुरशाह जफर को फिर से गद्दी पर बैठाए जाने के बाद यह अभियान देश के बड़े हिस्से में फैल गया था। कुछ इस तरह कि अंग्रेज अगले दो साल तक पश्चिम में पंजाब, सिंध व बलूचिस्तान से लेकर पूर्व में अरुणाचल व मणिपुर और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में केरल व कर्नाटक तक, अलबत्ता अलग-अलग वक्त पर खुले अलग-अलग मोर्चो पर, कभी मुंह की खाते और कभी छल-प्रपंच से बढ़त हासिल करते रहे। उन्हें मैदानी इलाकों में हल जोतने वालों से लेकर छोटा नागपुर/रांची की पर्वतीय जनजातियों, हिंदुओं से लेकर मुसलमानों, सिखों, जाटों, मराठों व बंगालियों, शिक्षितों से लेकर किसानों व मजदूरों, सिपाहियों से लेकर राजे-रजवाड़ों तक के दुर्निवार क्रोध से निपटना पड़ा।
लेकिन शुरुआती सफलताओं और व्यापक जनभागीदारी के बावजूद, कई खोटों के कारण यह अभियान अंग्रेजों की कुटिलताओं से पार नहीं पा सका। इसने ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत तो किया लेकिन देश की ब्रिटिश उपनिवेश वाली नियति नहीं बदल सका। गौरांग महाप्रभुओं ने इसका दमन कर 90 सालों बाद तक अपनी सत्ता बनाए रखी और उसके सहारे इसके नायकों को खलनायक सिद्ध करने के बहुविध षड्यंत्न करते रहे। उनके षड्यंत्नों का सबसे बड़ा कुफल यह हुआ कि आधी शताब्दी तक इसे स्वतंत्नता संग्राम के रूप में पहचाना ही नहीं गया और ‘सिपाही विद्रोह’ अथवा ‘गदर’ ही कहा जाता रहा।
पचास साल तक एक विफल स्वतंत्नता संग्राम की शुरुआत होने का खामियाजा चुकाती और अपने दुर्भाग्य पर रोती रही 10 मई के अच्छे दिन 1907 में आए, जब विजयोन्माद में अंधे अंग्रेज इस संग्राम और इसके नायकों पर तमाम लानतें भेजते हुए इंग्लैंड में जश्न मनाने पर उतरे। तब लंदन के एक कॉलेज में कानून की पढ़ाई कर रहे विनायक दामोदर सावरकर का राष्ट्रप्रेम जागा और उन्होंने नहले का जवाब दहले से देने के लिए वहां रह रहे हिंदुस्तानी नौजवानों व छात्नों को ‘अभिनव भारत’ और ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ के बैनर पर संगठित करके 1857 के शहीदों की इज्जत और लोगों को उसका सच्चा हाल बताने के लिए अभियान शुरू किया।
1909 में उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘दि हिस्ट्री ऑफ इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस’ लिखी। उन्होंने उसमें 1857 को ‘भारतीय स्वतंत्नता का पहला संग्राम’ बताया तो उसे जब्त कर लिया गया। बाद में अभिनव भारत सोसायटी टूट गई और इंग्लैंड में दस मई का त्यौहार मनाए जाने का सिलसिला टूट गया। इसकी क्षतिपूर्ति यों हुई कि अमेरिका में हिंदुस्तान गदर पार्टी बनी और उसने वहां हर साल इसे मनाना शुरू कर दिया। यकीनन, दस मई ऐसी तारीख है, जिसकी याद हमें भविष्य की लड़ाइयों के लिए बल देती है