किसान आंदोलन : सरकार के लिए पनपता संकट, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग
By अभय कुमार दुबे | Published: January 20, 2021 12:41 PM2021-01-20T12:41:21+5:302021-01-20T12:42:54+5:30
सर्वेक्षण के अनुसार पिछले डेढ़ महीने के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की रेटिंग में कम से कम दस फीसदी की गिरावट तो हुई है. उनकी सरकार की लोकप्रियता की रेटिंग में पंद्रह फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई है.
किसान आंदोलन का हर नया दिन सरकार का संकट बढ़ा रहा है. इसके कारण बिना किसी आवाज, हंगामे और बड़ी उथल-पुथल के सरकार और उसके नेतृत्व की साख में क्रमश: छोटी-छोटी कटौती हो रही है.
दिलचस्प बात यह है कि सरकार और नेतृत्व की प्रतिष्ठा में आई गिरावट का पहला आंकड़ागत सबूत सामने आ गया है. विचारणीय यह है कि अगर यह आंदोलन डेढ़ महीने और चल गया तो इसका राजनीतिक परिणाम क्या होगा? एक न्यूज चैनल द्वारा कराया गया सी-वोटर का ‘देश का मूड’ सर्वेक्षण भारतीय जनता पार्टी को बेचैन करने के लिए काफी है.
मोदी की लोकप्रियता की रेटिंग में कम से कम दस फीसदी की गिरावट तो हुई है
सर्वेक्षण के अनुसार पिछले डेढ़ महीने के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की रेटिंग में कम से कम दस फीसदी की गिरावट तो हुई है. उनकी सरकार की लोकप्रियता की रेटिंग में पंद्रह फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई है. हालांकि अभी भी दोनों की रेटिंग काफी अच्छी है, लेकिन ऐसी गिरावट पहली बार देखी गई है.
सात सालों में पहली बार किसी प्रदेश (पंजाब) में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता नकारात्मक या शून्य से काफी नीचे चली गई है. हरियाणा में उसके मुख्यमंत्री देश के सबसे खराब मुख्यमंत्रियों की सूची में दूसरे नंबर पर हैं. वहां भी प्रधानमंत्री की साख का आंकड़ा अच्छा नहीं है. पंजाब और हरियाणा के किसान इस आंदोलन के हरावल में हैं. यह सर्वे बताता है कि किसान आंदोलन से निबटने में विफलता मिलने के कारण सरकार अपने लिए एक धीरे-धीरे पनपते हुए खतरे का सामना कर रही है.
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता केवल 35 फीसदी
सर्वेक्षण ने एक और विचारणीय आंकड़ा पेश किया है जिस पर अभी तक चर्चा नहीं हो पाई है. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता केवल 35 फीसदी के आसपास और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता तो उनसे भी कम यानी 25 फीसदी के आसपास है. चुनाव-नतीजे बताते हैं कि पिछले सात साल से यह प्रदेश पूरी तरह से भाजपामय रहा है. ऐसे प्रदेश में मुख्यमंत्री और उन्हें चुनने वाले प्रधानमंत्री (जो इसी प्रदेश से दूसरी बार सांसद चुने गए हैं) दोनों की साख पचास फीसदी से काफी कम दिख रही है.
किसान आंदोलन में हरियाणा और पंजाब के बाद अगर किसी प्रदेश के किसान सबसे ज्यादा हैं तो वह है पश्चिमी उत्तर प्रदेश. वहां के विख्यात किसान नेता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत भी इस आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्ति हैं. पहले जानकारी मिली थी कि भाजपा के रणनीतिकारों ने टिकैत को अपनी ओर खींच लिया है. लेकिन अभी तक इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिला है.
टिकैत और अन्य नेताओं के बीच कोई मतभेद नहीं उभरा
टिकैत और अन्य नेताओं के बीच कोई मतभेद नहीं उभरा है. ध्यान रहे कि पश्चिमी उ.प्र. के जाट किसानों ने पिछले तीनों चुनावों में भाजपा को निष्ठापूर्वक वोट दिया है. अब भाजपा को डर सता रहा है कि नए कृषि कानूनों के विरोध के कारण इन किसानों और पार्टी के बीच संबंधों में दरार आ सकती है.
सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि आंदोलन भले ही शहरी मध्यवर्ग का सक्रिय समर्थन न प्राप्त कर पाया हो, आम लोग सरकार की संबंधित विफलताओं को ध्यान से देख रहे हैं. यह एक चौंका देने वाला तथ्य है. यह आंदोलन शहरी मध्य वर्ग और अन्य गैर-किसान तबकों को एक राजनीतिक आत्मीयता के साथ अपनी ओर आकर्षित कर रहा है.
यह भी देखने की बात है कि पहले भाजपा की तरफ से आंदोलनकारियों को खालिस्तानी एजेंट और टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य बताने जैसी घिनौनी अफवाहें उड़ाई जा रही थीं. इस तरह का कुप्रचार भी दब गया है. शायद इसलिए कि इस पर किसी ने विश्वास नहीं किया. जाहिर है कि अब सरकार के समर्थक किसी और हथकंडे की खोज में होंगे.
आंदोलन के पीछे गैर-पार्टी किसान संगठनों की ताकत तो है ही
दूसरी समझने वाली बात यह है कि इस आंदोलन के पीछे गैर-पार्टी किसान संगठनों की ताकत तो है ही, इसके पीछे मुख्य तौर पर पंजाब और देश के सिख समाज की जबर्दस्त सांगठनिक शक्ति भी काम कर रही है. भाजपा की हिंदुत्ववादी विचारधारा के लिए यह पहलू अस्थिरकारी है.
हिंदुत्व की विचारधारा मानती है कि सिख व्यापक हिंदू एकता के स्वाभाविक अंग हैं, क्योंकि खालसा पंथ इस्लाम और ईसाइयत के विपरीत भारत में ही पैदा हुआ धर्म है. 1984 में हुई सिख विरोधी हिंसा को संघ परिवार इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण मानता है कि उसके कारण हिंदुओं और सिखों के बीच संबंधों में गांठ पड़ गई थी.
उसे डर है कि यह आंदोलन एक बार फिर वैसी ही परिस्थिति पैदा कर सकता है. अगर ऐसा हुआ तो हिंदुत्व की दूरगामी परियोजना सांसत में पड़ जाएगी. अगर सिख भाजपा और संघ परिवार से फिरंट होते हैं, तो वे दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के ज्यादा नजदीक चले जाएंगे.
उनका समाज शक्तिशाली, संगठित, संसाधनयुक्त, फौजी अतीत और वर्तमान से संपन्न होने के साथ-साथ यूरोप, कनाडा और अमेरिका में अच्छी-खासी समर्थनकारी उपस्थिति से लैस है. इन्हीं सब कारणों से भाजपा और उसकी सरकार के लिए यह आंदोलन जल्दी से जल्दी खत्म करना जरूरी है. लेकिन मुश्किल यह है कि तीनों कानूनों को वापस लिए बिना यह काम कैसे किया जाए, यह इस सरकार को पता नहीं है.