किसानों की परवाह करने पर ही खुशहाल होगा भारत, अश्वनी कुमार का ब्लॉग
By अश्वनी कुमार | Published: December 30, 2020 03:13 PM2020-12-30T15:13:20+5:302020-12-30T15:24:59+5:30
कृषि संबंधी अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह और महात्मा गांधी के नेतृत्व में किए जाने वाले ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन और चंपारण सत्याग्रह की याद दिलाता है.
देश में पिछले कई हफ्तों से अभूतपूर्व किसान आंदोलन देखा जा रहा है, जो व्यापक रूप से केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के विरोध में है.
किसानों के इस शांतिपूर्ण विरोध के जवाब में नवंबर की एक रात को उन पर आंसू गैस के गोले और वाटर कैनन से पानी की बौछार की गई, जिसने राष्ट्र का सिर शर्म से झुका दिया. यह शांतिपूर्ण विरोध के अपने मौलिक अधिकार का प्रयोग करने वाले किसानों के खिलाफ सरकार द्वारा पाशविक शक्ति का उपयोग है, जो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा देश पर थोपे गए कृषि संबंधी अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह और महात्मा गांधी के नेतृत्व में किए जाने वाले ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन और चंपारण सत्याग्रह की याद दिलाता है.
यह बताते हुए कि न्याय के बिना ताकत निरंकुश है, इन आंदोलनों ने एक सदी पहले स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक घोषणापत्र के लिए बुनियादी आधार प्रदान किया था. दुख की बात है कि हमारे देश के बहादुर और सम्मानित किसान समुदाय को औपनिवेशिक शासन के तहत सीखे गए पाठों को सरकार को याद दिलाना पड़ रहा है.
देश भर में नए कानूनों का व्यापक विरोध, जिसे कई राजनीतिक दलों ने अपना समर्थन दिया है, अपनी कहानी आप कह रहा है. यह आंदोलन इस बात की भी पुष्टि करता है कि जब सरकार जनभावनाओं का तिरस्कार करे तो बड़े पैमाने पर जनआंदोलन के माध्यम से ही हम एक समतावादी लोकतंत्र के वादे पर डटे रह सकते हैं. आंदोलनकारी किसानों के लिए जन सहानुभूति दिखाती है कि स्वतंत्रता और न्याय लोगों की चेतना में जीवित है और एक लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक आख्यान अन्याय के खिलाफ लोगों के विरोध में ही मौजूद है.
यह हमें बताता है कि प्रत्येक भारतीय समान रूप से मायने रखता है; कि मानवीय विवेक को हमेशा के लिए नहीं दबाया जा सकता और उपचार का पहला कदम दर्द बांटना है. आंदोलन हमें बताता है कि स्वाभिमानी लोगों की राजनिष्ठा केवल न्यायपूर्ण कानूनों के माध्यम से ही सुनिश्चित की जा सकती है. सरकार का दावा है कि संबंधित कानून किसानों के हित में हैं, लेकिन हम पास्कल के माध्यम से जानते हैं कि ‘लोगों को केवल उन तर्को से बेहतर ढंग से समझाया जा सकता है जो उनके मन को जांचें, बजाय इसके कि दूसरे उन पर अपने विचार थोपें.’
उम्मीद है, सरकार इस बात को याद रखेगी कि जो लोग इतिहास से नहीं सीखते हैं, उन्हें इतिहास दंडित करता है. किसानों द्वारा किया गया ऐतिहासिक आंदोलन हमारे लोकतांत्रिक विकास के इतिहास में एक यादगार क्षण है और हमें याद दिलाता है कि एक लचीले लोकतंत्र को श्वेत-श्याम से परे देखने और धूसर रंगों को पहचानने की आवश्यकता है.
हम विभाजनकारी राजनीति को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, जो एक राष्ट्र के रूप में हमारी क्षमता को सीमित करता है. न ही हम संवेदना की मंद होती भावना की अनदेखी कर सकते हैं जो हमारी मानवता को परिभाषित करती है. एक राष्ट्र, जो मानवाधिकारों पर आधारित एक नई विश्व व्यवस्था के निर्माण में अपनी सही भूमिका निभाने के लिए इच्छुक है, उसे सर्वसमावेशी, न्याय और सम्मान के लिए प्रतिबद्ध राजनीति में अपने भविष्य की भूमिका तय करनी चाहिए.
इसके पहले कि विरोध क्रोध, पीड़ा और निराशा की भावना से अपरिहार्य अलगाव की भावना तक पहुंचे, सरकार को किसानों की मांगों को स्वीकार कर जनभावना का सम्मान करना चाहिए. हमारे किसान अंतत: तो भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसकी याद राष्ट्रपिता ने हमें बार-बार दिलाई है.
इसका विकल्प सिर्फ चरम अस्थिरता और अशांति ही हो सकता है जो अकल्पनीय है. आंदोलनकारी किसानों की मन:स्थिति मजाज लखनवी की इन पंक्तियों में व्यक्त होती है : दिल में एक शोला भड़क उठा है आख़िर क्या करूं/ मेरा पैमाना छलक उठा है आख़िर क्या करूं/ ज़ख्म सीने का महक उठा है आख़िर क्या करूं/ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं. अब जबकि हम नए साल में प्रवेश कर रहे हैं, हम एक खुशहाल और परवाह करने वाले भारत की आशा करें ताकि शायर द्वारा व्यक्त की गई असहायता इतिहास में ही रह जाए!