jawaharlal nehru: कैसे बीते थे पं. जवाहरलाल नेहरू के आखिरी दिन?
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: November 14, 2024 05:31 AM2024-11-14T05:31:47+5:302024-11-14T05:31:47+5:30
jawaharlal nehru: पुत्री इंदिरा गांधी ने सम्मेलन के स्वयंसेवकों व नेताओं के सहयोग से पं. जवाहरलाल नेहरू उठाया और संभाला.
jawaharlal nehru: स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अपने जीवन के आठ साल, ग्यारह महीने और सात दिन अंग्रेजों की जेलों में बिताने वाले पं. जवाहरलाल नेहरू के बारे में जब भी चर्चा हो, यह जरूर कहा जाता है कि स्वतंत्रता के बाद वे 16 साल प्रधानमंत्री रहे और ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ कहलाए. लेकिन उनके सदमे से भरे अंतिम (खासकर 1962 के चीनी हमले के बाद) दिन कैसे बीते और 27 मई, 1964 को अपने निधन से पहले उन्होंने कितनी तकलीफें झेेलीं, इस बाबत कम ही बात होती है. 1964 आते-आते उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं गंभीर हो गई थीं.
इसके बावजूद वे भुवनेश्वर में हो रहे कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने गए. सम्मेलन के कार्यक्रम में आठ जनवरी, 1964 को उन्हें बोलना था. लेकिन इसके लिए पुकारे जाने पर वे उठे तो डगमगाकर सामने की तरफ इस तरह गिर पड़े कि उठ नहीं पाए. तब वहां उपस्थित उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने सम्मेलन के स्वयंसेवकों व नेताओं के सहयोग से उन्हें उठाया व संभाला.
थोड़ी ही देर बाद डाॅक्टरों ने जांच की तो पाया कि उनके शरीर का बायां हिस्सा पक्षाघात का शिकार हो गया है. फिर तो गहरी चिंता के बीच सम्यक चिकित्सा के लिए उन्हें भुवनेश्वर स्थित राजभवन ले जाया गया. लेकिन डाॅक्टरों की भरसक कोशिशों के बावजूद उन्हें इतना स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सका कि वे अपना स्थगित भाषण देने दोबारा सम्मेलन में जा सकें.
12 जनवरी को वे लस्त-पस्त से नई दिल्ली लौट आए तो डाॅक्टरों ने उनसे कहा कि बेहतर होगा कि वे दोपहर में भी थोड़ी देर सोने की आदत डाल लें. आम तौर पर वे रोजाना 17 घंटे काम करते थे. दोपहर में सोने के लिए उन्हें इनमें पांच घंटों की कटौती करनी पड़ी. उन्हें इसका लाभ भी मिला. 26 जनवरी तक उनका स्वास्थ्य इतना सुधर गया कि वे गणतंत्र दिवस समारोह में सुभीते से भाग ले पाएं.
लेकिन जल्दी ही उनकी शक्ति फिर क्षीण होने लगी, जिसके चलते फरवरी में आयोजित संसद के उस साल के पहले सत्र में वे बैठे-बैठे ही भाषण देने को विवश हुए. फिर भी उन्होंने आत्मविश्वास नहीं खोया और गर्मियों तक इतनी शक्ति संचित कर ली कि किसी का सहारा लिए बिना सामान्य दिनचर्या निपटा सकें.
यह उनका आत्मविश्वास ही था कि अपने निधन से महज पांच दिन पहले 22 मई को एक संवाददाता सम्मेलन में (जो उनके जीवन का अंतिम संवाददाता सम्मेलन सिद्ध हुआ) पत्रकारों के बार-बार ‘नेहरू के बाद कौन?’ पूछने पर उन्होंने उन्हें झिड़कते हुए से कह दिया कि ‘मैं इतनी जल्दी मरने वाला नहीं हूं.’ लेकिन दबे पांव आई मौत ने उनके इस दावे को गलत सिद्ध करके ही दम लिया.
उक्त संवाददाता सम्मेलन के अगले दिन वे बेटी इंदिरा के साथ छुट्टी मनाने देहरादून चले गए और 26 मई को लौटे तो जरूरी कामकाज निपटाकर नींद की गोली खाई और सो गए. लेकिन सुबह आंखें खुलीं तो पाया कि उनकी पीठ में बहुत दर्द है. कुछ देर बाद उन्होंने इस बाबत एक सेवक को बताया. लेकिन उससे सूचना पाकर डाॅक्टर उनके पास पहुंचे तो उनकी हालत गंभीर हो गई थी.
उनका अपने पर नियंत्रण खोता जा रहा था और वे कुछ दिग्भ्रमित से हो चले थे. जब तक डाॅक्टर कोई उपचार करते, वे बेहोश हो गए. बाद में पता चला कि उनकी बड़ी धमनी फट गई है और प्राणरक्षा के लिए उन्हें फौरन खून चढ़ाना पड़ेगा. लेकिन जब तक खून चढ़ाया जाता, वे कोमा में चले गए. कुछ रिपोर्टों के अनुसार इसी बीच उन्हें एक और पक्षाघात हुआ.
जिसके बाद हृदयाघात से भी गुजरना पड़ा. इसके बाद उन्हें होश में लाने का कोई भी चिकित्सीय उपाय कारगर नहीं सिद्ध हुुआ और कोमा में ही दोपहर बाद एक बजकर चवालीस मिनट पर उन्होंने अंतिम सांस ले ली. आकाशवाणी ने दोपहर 2 बजकर 5 मिनट पर देश को उनके निधन की खबर दी तो पूरे देश में शोक की लहर छा गई.