हर चीज को राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से देखना उचित नहीं, आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े...
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: July 7, 2025 05:26 IST2025-07-07T05:26:45+5:302025-07-07T05:26:45+5:30
फार्मूले के अनुसार राज्य के स्कूलों में पहली से पांचवीं कक्षा तक के बच्चों को मराठी और अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाई जानी थी.

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आपातकाल में हमारे संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए थे- पहला ‘पंथ निरपेक्षता’ और दूसरा समाजवाद. संविधान जब तैयार किया जा रहा था तब भी इन शब्दों की आवश्यकता पर चर्चा हुई थी, पर तब हमारे संविधान निर्माताओं ने यह माना था कि यह दोनों विचार संविधान में अन्यत्र स्पष्ट रूप से जुड़े हुए हैं, अत: इन्हें अलग से प्रस्तावना में जोड़ना आवश्यक नहीं है.
जब आपातकाल के दौरान इन्हें जोड़ा गया तो तर्क यह दिया गया था कि यह दोनों विचार प्रमुखता के साथ रेखांकित होने चाहिए. अब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को लग रहा है कि इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटा कर अपनी विचारधारा को संविधान में शामिल किया जा सकता है. ऐसी ही एक कोशिश महाराष्ट्र में भी हो रही है.
राज्य की भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने केंद्र की नई शिक्षा-नीति को लागू करने की प्रक्रिया की शुरुआत करते हुए यह निर्णय लिया था कि राज्य में त्रिभाषा फार्मूले को लागू किया जाए. इस फार्मूले के अनुसार राज्य के स्कूलों में पहली से पांचवीं कक्षा तक के बच्चों को मराठी और अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाई जानी थी.
विपक्ष को, विशेषकर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को, सरकार के इस निर्णय का विरोध करके अपनी जमीन को मजबूत करने का अवसर दिखाई दिया. राज ठाकरे को भी इस स्थिति में एक अवसर दिखाई दिया और उन्होंने भी घोषणा कर दी कि राज्य सरकार की ‘मराठी विरोधी नीति’ को लागू नहीं होने दिया जाएगा.
भाषा के नाम पर महाराष्ट्र बहुत ही संवेदनशील है. दक्षिण और पूर्वी भारत के कुछ राज्यों में भी भाषा को लेकर संवेदनशीलता कम नहीं है. तमिलनाडु, कर्नाटक, असम, बंगाल आदि राज्यों में भी भाषा के नाम पर राजनीति होती रही है और अब भी हो रही है. लेकिन महाराष्ट्र में तो भाषाई अस्मिता के नाम पर ही शिवसेना जैसे राजनीतिक दल की स्थापना हो पाई थी.
आज भी त्रिभाषा फार्मूले वाली शिक्षा-नीति में हिंदी की स्थिति को लेकर होने वाले विरोध के मूल में भाषायी अस्मिता वाली बात ही है. महाराष्ट्र में इस नीति का विरोध करने वाले यह तो कहते हैं कि वह ‘हिंदी के विरोधी नहीं, हिंदी को थोपे जाने के विरोधी हैं’, लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि देश में सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी की पढ़ाई का विरोध करने वाले एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को कैसे स्वीकार कर पा रहे हैं? थोपी तो अंग्रेजी जा रही है. बहरहाल, हिंदी भले ही संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं, बल्कि देश की राजभाषा के रूप में स्वीकार की गई हो,
पर इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत जैसे बहुभाषी देश में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है. अपने देश की भाषाओं को सीखकर ही हम अपने देश को समझ सकते हैं. इसलिए महाराष्ट्र में अथवा अन्य किसी भी राज्य में हिंदी का विरोध बेमानी है.
हमें तो इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारे पास इतनी सारी भाषाओं की संपदा है. गर्व करने वाली यही बात संविधान की प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ के जुड़े होने पर भी है. ये दोनों विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से नहीं देखे जाने चाहिए.