विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: ‘विचार’ का सामना ‘हथियार’ से करना ठीक नहीं

By विश्वनाथ सचदेव | Published: September 19, 2019 06:28 AM2019-09-19T06:28:49+5:302019-09-19T06:28:49+5:30

‘विचार’ का सामना ‘हथियार’ या फिर ‘अधिकार’ से करने की प्रवृत्ति किसी भी दृष्टि से जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है. इसी तरह, असहिष्णुता का समाज में फैलना भी एक खतरनाक चेतावनी है. इस चेतावनी को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.

It is not right to face the ideology with a weapon | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: ‘विचार’ का सामना ‘हथियार’ से करना ठीक नहीं

प्रतीकात्मक फोटो

Highlightsपुणे और मुंबई में थियेटर से जुड़ी इन घटनाओं का पैंतीस-छत्तीस साल पहले घटी शेखर सेन वाली घटना से कोई सीधा संबंध नहीं है.आखिर क्यों डरती है कोई भी सत्ता साहित्य या कला या संगीत से?

उस दिन यह किस्सा गायक-कलाकार और संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद्मश्री शेखर सेन ने मुंबई के एक कार्यक्रम में सुनाया था. बात लगभग पैंतीस-छत्तीस साल पुरानी है. धर्मयुग के तत्कालीन संपादक धर्मवीर भारती के सुझाव पर तब के उभरते हुए कलाकार शेखर ने ‘पाकिस्तान के हिंदी कवियों’ की रचनाओं पर अधारित एक कार्यक्रम तैयार किया था और कुछ अखबारों में इस बारे में सूचना भी छपी थी. 

इसी सूचना के आधार पर कुछ शिवसैनिकों ने शेखर सेन को धमकाया कि वे पाकिस्तान से जुड़ा कोई कार्यक्रम करने की हिमाकत न करें. बड़ी मुश्किल से शेखर उन्हें समझा पाए थे कि उस कार्यक्रम में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है. उन्होंने पाकिस्तानी कवियों की कुछ रचनाएं उन्हें सुनार्इं भी. अधिकतर रचनाएं कृष्ण-भक्ति से संबंधित थीं. शिवसैनिक तो किसी तरह संतुष्ट होकर चले गए, पर बात समाप्त नहीं हुई थी. एक-दो दिन बाद ही शेखर के पास एक ऊंचे पुलिस अफसर का बुलावा आ गया. उन्हें कानून-व्यवस्था की चिंता थी और उनका कहना था शेखर सेन नाहक क्यों ऐसा कार्यक्रम करना चाहते थे. पर शेखर उन्हें यह आश्वासन देने में कामयाब हो गए कि वह शुद्ध साहित्यिक रचनाओं पर आधारित कार्यक्र म है और इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं होगा. कार्यक्रम हुआ और सराहा भी गया.

शेखर सेन द्वारा सुनाया गया यह किस्सा मुझे एक पत्र पढ़कर याद आया. यह पत्र कुछ मराठी अखबारों में छपा होगा, पर मैंने इसका अंग्रेजी अनुवाद एक प्रतिष्ठित पत्रिका में पढ़ा है. पत्र-लेखक ने मुंबई और पुणे की दो घटनाओं का जिक्र  किया है जो इसी अगस्त माह में, स्वतंत्रता दिवस के पांच-सात दिन पहले ही घटी थीं. मुंबई वाली घटना दिल्ली के जन नाट्य मंच (जनम) द्वारा खेले जाने वाले नाटक ‘तथागत’ से जुड़ी है. 

यह नाटक मुंबई में तीन दिन में आठ जगहों पर खेला गया था. यह नुक्कड़ नाटक भी है और सभागार में भी खेला जाता है. जब नाटक मुंबई के आंबेडकर भवन में खेला जा रहा था, पुलिस ने वहां पहुंचकर पूछताछ की. दूसरे ही दिन पुलिस वाले फिर पहुंचे. इस बार वे कैमरा लेकर आए थे. सेट के चित्र खींचे और नाट्य मंडली के नेता के बारे में पूछताछ की गई. स्टूडियो के मैनेजर से भी पूछा गया कि उसने वह नाटक खेलने की अनुमति क्यों दी. नाटक देखने आए लोगों के भी फोटो खींचे गए. नाटक के दौरान भी पुलिस वाले उपस्थित थे. नाटक तो हो गया, पर माहौल दहशत भरा ही रहा.

दूसरी घटना पुणे की है, जहां 15 अगस्त की आधी रात के बाद एक होटल में ठहरे मुंबई के एक थियेटर ग्रुप के लोगों को पुलिस ने जगाया. ग्रुप वाले पुणे विश्वविद्यालय के ललित कला केंद्र में हिंदी नाटक ‘रोमियो रविदास और जूलियट देवी’ नामक नाटक खेलने आए थे. पुलिस वालों ने समूह के नेता यश खान के बारे में पूछताछ की और उसके चार सहयोगियों से भी जानकारी ली. दो कमरों की तलाशी भी ली गई. पुलिस ने कुछ बताया तो नहीं, पर स्पष्टत: उन्हें यश खान नामक व्यक्ति से खतरा लगा था.

यह सही है कि मुंबई और पुणे की इन दोनों घटनाओं में किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, पर क्या यह भी सही नहीं है कि ऐसी घटनाएं कला की दुनिया में अकारण ही दशहत फैलाती हैं? आखिर क्यों पुलिस को यह सब करना पड़ा? क्या इसलिए कि इनमें से एक घटना से सफदर हाशमी की पत्नी द्वारा चलाया जा रहा थियेटर ग्रुप जुड़ा हुआ था? ज्ञातव्य है कि वामपंथी नाटककार सफदर हाशमी की उनके विचारों के कारण हत्या कर दी गई थी. और उनकी पत्नी भी वामपंथी विचारों की हैं. दूसरी घटना का रिश्ता एक मुस्लिम युवा, यश खान से है, क्या इसलिए वह संदेह के घेरे में हैं?

पुणे और मुंबई में थियेटर से जुड़ी इन घटनाओं का पैंतीस-छत्तीस साल पहले घटी शेखर सेन वाली घटना से कोई सीधा संबंध नहीं है. लेकिन क्या ‘पाकिस्तान’, ‘मुसलमान’, ‘वामपंथ’ शब्द इस नाट्य-प्रकरण के संदर्भ में कुछ संकेत नहीं दे रहे? आखिर क्यों डरती है कोई भी सत्ता साहित्य या कला या संगीत से? अथवा क्यों हम साहित्य, कला और संगीत को, सांस्कृतिक गतिविधियों को, राजनीति से अलग करके नहीं देख सकते?  

पुणे और मुंबई में नाटक की दुनिया से जुड़ी जिन दो घटनाओं का जिक्र  मराठी अखबारों में छपे पत्र में किया गया है, वे कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से ही जुड़ी हैं. और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसी महाराष्ट्र में दो प्रमुख विचारकों-साहित्यकारों की हत्या इसलिए कर दी गई थी कि हत्या करने वालों को उनकी विचारधारा पसंद नहीं थी. तमिलनाडु में एक साहित्यकार को इसीलिए ‘अपनी साहित्यिक आत्महत्या’ की घोषणा करनी पड़ी थी कि उसके लेखन से एक वर्ग को शिकायत थी!

‘विचार’ का सामना ‘हथियार’ या फिर ‘अधिकार’ से करने की प्रवृत्ति किसी भी दृष्टि से जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है. इसी तरह, असहिष्णुता का समाज में फैलना भी एक खतरनाक चेतावनी है. इस चेतावनी को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. मुंबई और पुणे की दोनों घटनाएं बहुत छोटी लग सकती हैं, पर जनतांत्रिक मूल्यों के संदर्भ में इनका महत्व बड़ा है. इनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए- कुछ सीखा ही जाना चाहिए इनसे.

Web Title: It is not right to face the ideology with a weapon

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