अवधेश कुमार का ब्लॉग: बड़े देशों की उदासीनता शोचनीय
By अवधेश कुमार | Published: January 9, 2019 08:51 PM2019-01-09T20:51:21+5:302019-01-09T20:51:21+5:30
जलवायु परिवर्तन के इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक तापमान 1।5 डिग्री बढ़ जाएगा। जाहिर है इसका परिणाम विनाशकारी होगा।
वायुमंडल का तापमान खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक तापमान 1।5 डिग्री बढ़ जाएगा। जाहिर है इसका परिणाम विनाशकारी होगा। यह बात पहले से साफ है कि विश्व को बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक 45 प्रतिशत की कमी लाने और 2050 तक उत्सर्जन शून्य करने की जरूरत है। उसके साथ तेजी से अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ना होगा। तो दुनिया को बचाने का यह सूत्न सभी देशों को पता है, लेकिन हो क्या रहा है?
इसी चिंता में पोलैंड के कटोविस शहर में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन का 24वां सम्मेलन (कोप 24) आयोजित हुआ था। कार्बन उत्सर्जन कम करने पर सम्मेलन केंद्रित था। चीन ने वर्ष 2014 में 12454।711 मीट्रिक टन ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन किया। 6673।4497 मीट्रिक टन के साथ अमेरिका दूसरे और 4224।5217 मीट्रिक टन के साथ यूरोपीय संघ तीसरे स्थान पर रहा। भारत चौथे और रूस पांचवें स्थान पर रहा। पूरे विश्व में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 10 देशों का अंशदान तीन-चौथाई है। पोलैंड में इसे कम करने पर बात तो हुई, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस की पीड़ा इन शब्दों में देखी जा सकती है- ‘जो देश सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं उनकी तरफ से पेरिस समझौते को मानते हुए उत्सर्जन कम करने की दिशा में समुचित प्रयास नहीं किए गए। हमें ज्यादा लक्ष्य और ज्यादा कार्रवाई करने की जरूरत है। अगर हम विफल होते हैं तो आर्कटिक और अंटार्कटिक इसी तरह पिघलता रहेगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, प्रदूषण से ज्यादा लोगों की मौत हो जाएगी। जलसंकट बड़ी आबादी को प्रभावित करेगा और संकट बढ़ेगा।’
तीन वर्ष पूर्व पूरी दुनिया ने पेरिस में एक स्वर से सहमति जताकर समझौता किया था। वह धरती को बचाने का सबसे सफल सम्मेलन माना गया। देशों की जिम्मेवारियां तय हुईं, कुछ रास्ते निकाले गए जिन पर सबको आगे बढ़ना था। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा थे। ट्रम्प ने पेरिस समझौता को अमेरिका विरोधी करार देकर उससे अपने को बाहर कर लिया। हालांकि नवंबर 2016 से लागू पेरिस समझौते को 197 में से 184 देशों ने मंजूरी भी दे दी है, लेकिन अमेरिका के बिना यह बेमानी है।