शरद जोशी का ब्लॉगः उच्चस्तरीय सांस्कृतिक अय्याशी

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 15, 2018 07:42 AM2018-12-15T07:42:55+5:302018-12-15T07:42:55+5:30

इंदौर नगर के बाहर से मिल की चिमनियां नजर आती हैं तो लगता है कि वह मेहनतकशों की धरती है और यहां की साहित्यिक परंपरा भी जनजीवन में घुल-मिली होगी, पर अखबारों के पन्ने पलटो तो ‘इंदौर में आज’ नजर आएगा कि उस बड़े घर में कवियों को अपनी मधुरिमा बिखेरने बुलाया है. 

indore city cultural tourism Literary tradition and poet | शरद जोशी का ब्लॉगः उच्चस्तरीय सांस्कृतिक अय्याशी

शरद जोशी का ब्लॉगः उच्चस्तरीय सांस्कृतिक अय्याशी

शरद जोशी

‘अली कली ही सों बिंध्यो, आगे कौन हवाल’ वालों को जाने किस दोहे ने बना दिया कि वे ड्राइंग रूम में आकर सांस्कृतिक अय्याशी पर उतर आए हैं तथा कवि-गोष्ठियों की एक उच्चस्तरीय लड़ी इंदौर के खादी वातावरण में चलने लगी है. 

मर गए वे कवि जो ‘संतन कहां सीकरी सौं काम’ का नारा देकर हजार जनता के घाट पर ही बैठ अपने मन की बात कह दिया करते थे. अब ‘कविगण कहां कैबिनेट सौं काम’ सी बात नहीं है क्योंकि यों ही कुछ साहित्यिक व्यक्तित्व मक्खन-मय होते हैं और दूसरे, सरकारी नौकरी उन्हें त्रिशूल चुभोती है कि जाओ, अमुक मिनिस्टर ने साहित्य-गोष्ठी बुलाई है, तुम्हें जाना होगा. 

इंदौर नगर के बाहर से मिल की चिमनियां नजर आती हैं तो लगता है कि वह मेहनतकशों की धरती है और यहां की साहित्यिक परंपरा भी जनजीवन में घुल-मिली होगी, पर अखबारों के पन्ने पलटो तो ‘इंदौर में आज’ नजर आएगा कि उस बड़े घर में कवियों को अपनी मधुरिमा बिखेरने बुलाया है. 

राजनीति के वे पुतले जो कभी किसी समय हिंदी साहित्य समिति या कहीं भी किसी साहित्य गोष्ठी के कोने में आकर नहीं बैठे, जिन्होंने कभी इस बात को नहीं सोचा कि ‘मेरा देश’ गानेवाला वीरेंद्र कैसे घर चलाता है और मुकुट बिहारी सरोज की बेटी मुन्नी उससे कैसे बिछड़ गई, वे निमंत्रण घुमवाते हैं कि हमारे घर पर आना, हम ढोल पीटकर कविता सुनेंगे, ताकि जमाने में यह चर्चा रहे कि उन्हें कला से भी प्रेम है. 

प्रसिद्धि के भूखे दो पाटों में पिसते हुए बेचारे कवि छोड़ें और न छोड़ें के बीच परेशान रहते हैं और अपने मस्तक को थोड़ा नम्रता का झुकाव दे काठ के ढेर को कविता सुनाते हैं. जिन्हें सम्मान करने की फुर्सत नहीं थी, वे सरस्वती के बेटों का मीठा अपमान करने के लिए स्वागत करते हैं. वे जयसिंह की तरह मूर्ख नहीं कि एक-एक दोहे पर अशरफी दें. वे उन्हें बिना टिकट आया मानते हैं और गीतों की वायलिन सुनने के बाद रात के तीन बजे अपनी कार का दरवाजा खोल देते हैं ताकि कवि उस स्थान पर जा सके जहां सोने को धरती हो, खाने को रोटी.

यह उच्चस्तरीय सांस्कृतिक अय्याशी है. ईमानदार इसमें मजबूर होकर जाते हैं. और चापलूस इसमें आगे बढ़कर व्यवस्था करते हैं. वे कंधे टूट गए जो भूषण की डोली को उठाते थे, अब केवल अंगूठे शेष रहे हैं जो कार्यक्रम के बाद कलाकारों को दिखा दिए जाते हैं और वे हथेलियां, जो अगली गोष्ठी नियंत्रित करती हैं, और यश-वृद्धि में योग देनेवाले संयोजक की पीठ थपथपाती हैं.

Web Title: indore city cultural tourism Literary tradition and poet

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