अभिषेक श्रीवास्तव का ब्लॉग: किसानों के लिए नहीं, तो कम से कम अपने बच्चों के लिए तो मुंह खोलें हम शहरी लोग
By अभिषेक श्रीवास्तव | Published: December 17, 2020 10:05 AM2020-12-17T10:05:41+5:302020-12-17T12:22:06+5:30
पंजाब और हरियाणा के किसान केंद्र सरकार द्वारा बनाये गये तीन नए कृषि कानूनों को वापस लेने की माँग कर रहे हैं। किसान नेताओं और केंद्र सरकार के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन अभी तक कोई ठोस समाधान सामने नहीं आया है। लेकिन क्या यह मुद्दा केवल किसानों का है? भारतीय मध्यवर्ग का इससे कोई लेना-देना नहीं? इसी मुद्दे पर पढ़ें अभिषेक श्रीवास्तव का ब्लॉग-
हम लोग शहर में रहते हैं। खाते-कमाते हैं। सीधा सादा जीवन जीते हैं। हमें लगता है कि हम जो कुछ कमाते हैं, सब अपनी मेहनत और किस्मत के बल पर है। बाकी सरकार तो आती जाती रहती है। कोई हमारा घर तो चलाता नहीं। गोस्वामी तुलसीदास कह गए थे- कोउ नृप होय हमें का हानी। राजा कोई हो, हमारा पेट थोड़े भर देगा। थोड़ी अपनी मेहनत, बाकी किस्मत का खेल है सब। इसी समझदारी को लेकर हम लोग जिंदगी काट देते हैं।
पटरी पर चलते-चलते जिंदगी में कुछ सवाल कभी कभार सामने आते हैं। आजकल तो रोज ही नए मुद्दे सामने आ रहे हैं। ऐसे में हम लोग क्या करते हैं? टीवी देखते हैं, अखबार पढ़ते हैं, आपस में बोलते-बतियाते हैं और जरूरी लगा तो उस मुद्दे पर राय बनाते हैं। ज्यादातर राय हम इसलिए बनाते हैं ताकि चट्टी चौराहे पर दो लोगों के बीच में बोल सकें। हीन भाव महसूस न हो। फिर चौराहे की बात चौराहे पर छोड़कर हम आगे बढ़ जाते हैं। जैसे चलते चलते कपड़े में धूल लग जाती है तो आदमी झाड़ देता है।
कभी कभार कुछ ऐसे मुद्दे होते हैं जिन्हें झाड़ कर हटाना इतना आसान नहीं होता। जैसे हर बजट के बाद कितना टैक्स बढ़ा या घटा, सब्जी या पेट्रोल का दाम कितना ऊपर नीचे हुआ, ये सब हमारे दैनिक जीवन पर असर डालता है। हम बोलें या न बोलें, लेकिन महंगाई का ताप महसूस जरूर करते हैं। जेब से निकल के भंजते ही 500 का नोट कितनी जल्दी गायब होता है, सोचने पर समझ में आता है।
इसी तरह हर आदमी सोचता है। जो मुद्दा जिसकी जिंदगी पर असर डालता है, उसके बारे में वो सोचता है। बोलता है। गुस्साता है। गरियाता है। या कुछ नहीं कर पाने की मजबूरी में किस्मत का लिखा मान के चुप बैठ जाता है। यही हाल अभी चल रहे किसानों के आंदोलन का भी है। इसे थोड़ा आंख खोलकर देखना समझना होगा। बिना टीवी या अखबार के। अपने दिमाग से।
खेती का मतलब क्या है?
सबसे पहले सोचिए कि खेती क्यों की जाती है। इस सवाल को ऐसे समझिए कि कोई आपसे पूछे कि कपड़ा क्यों पहना जाता है या गणित क्यों सीखा जाता है। आप चट से जवाब देंगे कि कपड़ा शरीर को ढंकने के लिए पहना जाता है और गणित हिसाब लगाने के लिए सीखा जाता है। इसी तर्ज पर हर काम का एक बुनियादी तर्क होता है। तो खेती का तर्क क्या हुआ?
खेती इसलिए की जाती है ताकि अपना पेट भरा जा सके। खेती करना जब मनुष्य ने सीखा था तो अपने लिए ही उगाता था। दूसरे के लिए नहीं, क्योंकि सब खेती करते थे और खाते थे।
समय बदला। कुछ लोग दूसरे काम धंधे में लग गए। उनका पेट भरने का काम खेतिहर करने लगा। कैसे? कुछ अनाज अपने लिए बचाता, जो अतिरिक्त बचता उसे बेच देता। पहले लेनदेन का सिस्टम था। पिसान के बदले साग या बरतन के बदले गेहूं लेते-देते थे। जब पैसे का चलन आया तो हर चीज का एक दाम हो गया। अनाज और साग-सब्जी भी रुपये में मिलने लगे, लेकिन पेट भरने में कभी किसी को दिक्कत नहीं आयी।
समस्या तब शुरू हुई जब आदमी पेट भरने के ऊपर अनाज बेचने को तरजीह देने लगा। क्यों? इसलिए क्योंकि बाजार आ गया। बाजार में दस तरह की चीज मिलने लगी। बाजार से खरीदने के लिए पैसे चाहिए। पैसा कहां से आएगा? खेती की उपज को बाजार में बेचकर। तो पहले बाजार ने किसानों को अपनी तरफ खींचा।
फिर बाकायदे सरकारी तंत्र की ओर से नकदी देने वाली फसलों का प्रचार किया गया। जिसको हम लोग पंजाब की हरित क्रांति के नाम से किताबों में पढ़ते हैं, वह पश्चिमी देशों की ओर से लाया गया फॉर्मूला था जिसने खेती के हमारे परंपरागत तर्क को ही नष्ट कर दिया।
ये सच है कि हरित क्रांति से गोदाम खूब भर गए, लेकिन किसान को पेट भरने के लिए पहली बार बाजार का मुंह करना पड़ा। इस तरह सदियों से चला आ रहा कृषि का बुनियादी तर्क की गड़बड़ा गया। अब अन्नदाता दूसरे का पट भर रहा था और अपने पेट के लिए बनिये पर निर्भर था।
इस गड़बड़ी में और सत्यानाश किया विदेशी कंपनियों ने सन नब्बे में, जब डंकल प्रस्ताव नाम की एक व्यवस्था ने किसानों को उनके बीज बाजार से खरीदने को मजबूर कर दिया। हमारे यहां की खेती में साल दर साल बीज बचाने की परंपरा थी। डंकल और गैट समझौते के बाद यह परंपरा नष्ट हो गयी।
खेती कैसे बनी घाटे का सौदा?
नब्बे के दशक के बाद किसानों की खेती की लागत बढ़ गयी। खेती का बीज, खाद, पानी, बिजली, मशीन, उपकरण सबमें पैसा लगने लगा। ये पैसा कर्ज से उठाया जाने लगा। कर्ज पटाने के चक्कर में नकदी फसल उगायी जाने लगी। इस तरह खेती भी किसी दूसरे व्यवसाय की तरह हो गयी जहां किसान की अपनी मेहनत और किस्मत बाजार के गिरवी हो गयी।
इस हालत में सरकार की तरफ से बस इतनी ही राहत थी कि सरकार फसलों की खरीदी का एक दाम तय कर देती थी। इसी को एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य कहा जाता है। ये बात अलग है कि इस दाम पर कोई खरीदता नहीं।
सरकारी मंडियों को भ्रष्टाचार निगल गया। औने पौने दाम में जो बिक जाए, आज खेतिहर उसी में संतोष कर लेता है। उस पर से यूपी बिहार में परिवार बढ़ने के साथ बंटवारे के कारण काश्त इतनी छोटी होती गयी है कि खेती से नहीं के बराबर ही कुछ आता है।
इसका नतीजा हुआ कि पिछले बीस साल में पूरी की पूरी पीढ़ी ही खेती करना भूल गयी और शहरों में नौकरी के चक्कर में पड़ गयी। अनुभव से हम लोग जानते हैं कि खेती घाटे का सौदा हो गयी है। कहने को बस गांव में जमीन है। हम लोग सोचते हैं कि कभी कोई विपत्ति आएगी तो गांव चले जाएंगे।
घर है कम से कम, रह लेंगे। इसलिए खेती-किसानी के किसी कानून में कोई बदलाव हमारी सेहत पर कोई असर नहीं डालता। मरे हुए को कोई और क्या मारेगा? इसके बावजूद अब भी हमारा पेट तो भर ही रहा है। जो राशन पानी हम बाजार से खरीदते हैं, वो कोई कारखाने में तो बनता नहीं। किसान ही उगाता है। एमपी का गेहूं लेने जब हम जाते हैं, तो इतना तो पक्का है कि एमपी में कोई न कोई होगा जो इस गेहूं को उगा रहा होगा।
अब सोचिए कि जो लोग अभी भी खेती-किसानी पर ही जमे हुए हैं, जो बड़ी काश्त वाले किसान हैं और जो हमारा पेट बाजार के रास्ते भरते हैं, अगर उनकी हालत भी हमारी जैसी ही हो गयी तब क्या होगा। इसे छोटे से तथ्य से समझिए। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि कुछ ऐसे राज्य हैं जहां अब भी खेती से नयी पीढ़ी जुड़ी हुई है क्योंकि वहां हमेशा घाटा नहीं होता। इन राज्यों में मंडी होती है।
मंडी में खरीद होती है। कहीं सरकारी रेट पर तो कहीं थोड़ा बहुत कम रेट पर। ऐसा नहीं कि सरकार ने 18 रुपया तय किया है और यूपी में 8 रुपया किलो भी नहीं मिल रहा किसान को। वहां एमएसपी के आसपास किसानों को मिल जाता है। ऐसे किसान देश में केवल 6% हैं, जिनमें साढ़े चार प्रतिशत अकेले पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के हैं। बाकी के डेढ़ प्रतिशत में पूरा देश आता है।
इसीलिए वहां के किसान पैसे वाले हैं। हमारे यहां गोरखपुर, बलिया, सीवान, दरभंगा से एक किसान का बेटा बहुत हुआ तो इलाहाबाद या बीएचयू पढ़ने आता है। उनके यहां के किसानों के बच्चे बड़े महानगरों में और विदेश भी जा सकते हैं। अपनी अपनी औकात का मामला है।
खेती के कानून से हमारा क्या लेना देना?
सरकार जो खेती किसानी से जुड़े कानून लायी है, उसमें इन 6 प्रतिशत किसानों को ही सबसे ज्यादा नुकसान दिख रहा है। उन्हें लग रहा कि कहीं उनकी भी हालत उत्तर प्रदेश, बिहार के लोगों की तरह न हो जाए क्योंकि मंडी सिस्टम खत्म करने और निजी कंपनियों के कृषि में घुसने का रास्ता सरकार ने बना दिया है। इससे वही होगा जो 2005-06 में बिहार में हुआ, जब वहां मंडी खत्म की गयी। सरकार का जोर नहीं रहा, तो किसानों की लागत निकलना भी बंद हो गयी।
अब सोचिए कि अगर पंजाब-हरियाणा के किसान को अपनी लागत ही नहीं मिलेगी तो वो खेती क्यों करेगा? यूपी बिहार के लोगों की तरह सरकारी नौकरी खोजेगा या छोटी मोटी निजी नौकरी करेगा।
फिर हमें खिलाएगा कौन? ऐसा नहीं कि खाने को अनाज नहीं मिलेगा। हां, अभी जिस रेट पर मिल रहा है उस पर कल को लगाम नहीं रह जाएगी क्योंकि अनाज को किसान की जगह कंपनी उगाएगी। कंपनी जब अनाज उगाएगी और बेचेगी तो समझना मुश्किल नहीं है कि वह शुद्ध मुनाफे का धंधा करेगी। अभी तो एक आम किसान घाटे का सौदा रहते हुए भी खेती नहीं छोड़ता क्योंकि उसको और कुछ आता ही नहीं है। वह पीढि़यों से खेती करते चला आ रहा है। कंपनी तो कुछ भी कर सकती है। उसके लिए धान गेहूं उगाना साबुन बनाने के बराबर काम है।
इसको छोटे में ऐसे समझें कि किसान की जगह किसी कंपनी के खेती करने का मतलब वही होगा जैसे शिक्षक की जगह आपको रोबोट पढ़ाए। इंसान की जगह मशीन खाना पकाए। जो काम जिसको बदा है वही करे तो सही लगता है, कोई दूसरा करे तो वह धंधा बन जाता है। दरअसल, जहां-जहां देश में खेती फल-फूल रही है, वहां-वहां उसे निजी कंपनियों और बाजार के हवाले करने का फॉर्मूला है तीन किसान कानून।
क्या आप जानते हैं कि कोरोना के कारण लगाये गये लॉकडाउन में जब हल्ला हो रहा था कि देश की जीडीपी यानी उत्पादन माइनस में चला गया, तब अकेले खेतीबाड़ी ही थी जिसकी दर में सकारात्मक बढ़त हुई थी। क्यों? क्योंकि लॉकडाउन में कारखाना तो बंद हो सकता है, जोताई बोवाई बंद नहीं हो सकती।
सोचिए, अगर भारी मशीनों के सहारे कॉरपोरेट कंपनी खेती करवा रही होती तो क्या यह संभव होता? फिर तो वह इंडस्ट्री मानकर लॉकडाउन में बंद कर दिया जाता और नौ महीने खाने के लाले पड़ जाते? अकेले खेती ही है जो किसी भी आपदा में चालू रहती है क्योंकि इंसान का पेट भरना सबसे पहला काम है, बाकी काम बाद में आते हैं। जो सबसे कामयाब किसान हैं, खांटी किसान हैं, उन्हें इसी की चिंता है कि अगर तीनों कानून अपना रंग दिखाने लगे तो क्या होगा।
तीसरा कृषि कानून सबसे खतरनाक
जिन तीन कानूनों की बात हो रही है, उनमें तीसरे वाले का सीधा वास्ता उन सब से है जो बाजार से खरीदते और खाते हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम में जो संशोधन किया गया है, उसके मुताबिक अब अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट से हटा लिया जाएगा। इससे जमाखोरी और कालाबाजारी को खुली छूट मिल जाएगी। ये सामान कंपनियां अपने गोदाम में भर लेंगी और मांग बढ़ने पर मनमाने रेट पर बेचेंगी। सोचिए, अगर कोरोना जैसी कोई आपदा, जो अभी पूरी तरह खत्म भी नहीं हुई, फिर से लौट आयी तो क्या होगा?
सर्वे भवन्तु सुखिन:
अंत में पैसा तो हमारी जेब से ही जाना है, चाहे हम बाजार से खुदरा खरीदें या मंडी के बाहर जाकर थोक में। एक आलू को काट के बनाया हुआ एक पैकेट चिप्स 20 रुपये में बेचने वाली कोई कंपनी क्यों चाहेगी कि हमें सस्ता गल्ला मिले? इससे तो कहीं अच्छा है कि किसान को उसकी उपज की सही लागत सरकार दिलवाए, जो नहीं दें उन पर सख्ती करे। इस तरह किसान भी खुश, उसके सहारे जिंदा रहने वाले हम लोग भी खुश।
किसानों का जो आंदोलन चल रहा है, उसका लेना देना इस देश के सवा अरब लोगों के पेट से है। हम केवल यही सोचते रहें कि ये तो दो राज्यों के किसानों का मामला है, इससे हमें क्या मतलब, तो हम बहुत बड़ी गलती कर रहे होंगे। किसान ये देख के नहीं उगाता कि उसका अनाज किसके पेट में जाना है। वो सबके लिए उगाता है। हमें किसानों का ऋणी होना चाहिए कि अब भी हमें दो टाइम की रोटी मिल रही है, वरना अमेरिका में जाकर देखिए वहां रोटी खोजे नहीं मिलेगी।
स्वाभाविक है कि आदमी तभी बोलता है जब अपने पर आती है। अक्सर तब भी नहीं बोलता। जरूरी यह नहीं है कि किसानों के मुद्दे पर हम मुखर हों। जरूरी यह है कि किसानों के मुद्दे को पूरी आबादी के साथ जोड़ कर सही तरीके से देखें और समझें। समझदारी सही रहेगी तो सब सही रहेगा। देश के नब्बे प्रतिशत किसान अपने हक में खुद बोलने की हालत में नहीं हैं। वे अपना पेट भर लें, यही गनीमत है। जो बचे खुचे बोल पा रहे हैं, क्या हमारी इतनी जिम्मेदारी नहीं बनती कि उन्हें हम निराश और हतोत्साहित न करें?
एक बार किसानों को भी भूल जाइए, क्या इतना अंधेर हो गया है कि हम आलू, प्याज, तेल, अनाज की जमाखोरी और कालाबाजारी को वैध बनाने वाले कानून के खिलाफ मुंह नहीं खोल सकते? कल को भूखे मर जाएं, इससे बेहतर नहीं होगा कि आज और अभी हम सोचना, समझना और बोलना शुरू करें? अपने लिए नहीं, कम से कम अपने बच्चों के लिए सही?