पड़ोसियों से बेहतर संबंध अब समझ में आए, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: October 28, 2020 04:58 PM2020-10-28T16:58:35+5:302020-10-28T16:58:35+5:30
कोरोना काल में इस नीतिगत बदलाव का निश्चित ही स्वागत किया जाना चाहिए. भारत इस उपमहाद्वीप के मुल्कों का सदियों से स्वाभाविक संरक्षक रहा है. इस भूमिका को उसे हरदम निभाना पड़ेगा.
कुछ महीनों से भारतीय विदेश नीति करवट ले रही है. साल-डेढ़ साल में अनेक बार इसी पृष्ठ पर मैंने इस बात को रेखांकित किया है कि चीन और पाकिस्तान भारतीय विदेश नीति में आए ठंडेपन का फायदा उठा रहे हैं.
खासतौर पर पड़ोसी होते हुए वे हिंदुस्तान के मित्न-देशों पर जिस तरह डोरे डाल रहे थे, वह अत्यंत गंभीर था. भारत छोटे पड़ोसियों के हितचिंतक की भूमिका नहीं निभा पा रहा था. गनीमत है कि हम वक्त रहते चेत गए और मित्न-मुल्कों की आंखें समय पर खुल गईं. कोरोना काल में इस नीतिगत बदलाव का निश्चित ही स्वागत किया जाना चाहिए. भारत इस उपमहाद्वीप के मुल्कों का सदियों से स्वाभाविक संरक्षक रहा है. इस भूमिका को उसे हरदम निभाना पड़ेगा.
ताजा मामला नेपाल का है. काठमांडू में प्रधानमंत्नी के.पी. शर्मा ओली के साथ भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के मुखिया सामंत गोयल की लंबी बैठक ने दोनों देशों के रिश्तों में आई दरार पाटने की दिशा में कदम बढ़ाया. यह नेपाल के रवैये में महत्वपूर्ण परिवर्तन है. हालिया वर्षो में नेपाल का चीन प्रेम साल-दर-साल बढ़ता गया है.
चीन ने इस खूबसूरत पहाड़ी देश में चालाकी से हिंदुस्तान के प्रति नफरत के बीज बो दिए थे. अब इनकी जड़ें गहरी हो चुकी हैं. भारत ने कई साल ध्यान ही नहीं दिया. या तो विदेश नीति को क्रियान्वित करने वाले नौकरशाह शिखर सियासी स्तर से हरी झंडी का इंतजार कर रहे थे या फिर यह सोच कर बैठे थे कि नेपाल तो भारतीयों का दूसरा घर है, इसलिए वहां से किसी खतरे का सवाल ही पैदा नहीं होता.
बाद में यह भ्रम टूट गया. चीन ने के.पी. शर्मा ओली को चुनाव में चुपचाप धनबल और बाहुबल से मदद की और उन्हें प्रधानमंत्नी बनवाया. केपी ने भी पूरी वफादारी दिखाई. वे भारत से एक-एक इंच जमीन लड़कर लेने की भाषा बोलने लगे. पर शीघ्र ही उनका चीन से मोहभंग हो गया. चीन ने नेपाल के बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया.
उपकारों के बोझ तले दबे केपी चीन से शिकायत तक नहीं कर सके. चीन ने इस सुंदर देश को पहले ही अपने कर्ज जाल में जकड़ लिया था. उन्होंने तटस्थता दिखाने का प्रयास किया. बौखलाया चीन नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में ओली के विरोधियों को संरक्षण देने लगा. केपी इससे घबराए हुए हैं. उनकी स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गई है. उन्हें अब भारत की दोस्ती का महत्व पता चल रहा है कि किस तरह सत्तर साल में भारत ने उसके हितों की रक्षा की है. नेपाल में एक बड़ा वर्ग सरकार की चीन से निकटता का सख्त विरोधी है. वह भारत से बेहतर रिश्तों का समर्थन करता है.
इसी क्र म में म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या और उसकी सीमा में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद संबंधों में आई खटास पाटने का प्रयास हुआ. चीन ने बांग्लादेश के साथ म्यांमार का इसी मसले पर गोपनीय समझौता कराया था. किसी को कानोंकान खबर नहीं मिली.
म्यांमार की सबसे ताकतवर महिला और भारत में पढ़ी-लिखी आंग सान सू की ने तो स्पष्ट कहा था कि वे चीन की दोस्ती के लिए भारत की नाराजगी पर ध्यान नहीं देतीं. म्यांमार का गुस्सा भारत के लिए झटके से कम नहीं था. ऐसे में म्यांमार की नौसेना को मजबूत बनाने के लिए भारत अपनी आधुनिक पनडुब्बी आईएनएस सिंधुवीर म्यांमार को दे रहा है.
लंबे समय से यह मामला लटका था. पनडुब्बी बत्तीस साल पुरानी है. सोवियत संघ से मिली थी. भारत ने उसे आधुनिक रूप दिया है. यह डीजल, पेट्रोल और बिजली से चलती है. डेढ़ महीने तक समंदर के भीतर 300 मीटर की गहराई में रह सकती है. भारत और म्यांमार के लिए बंगाल की खाड़ी की सुरक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है.
म्यांमार की नौसेना में यह पहली पनडुब्बी है. वहां नौसेना के अनेक अधिकारी भारत में प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं. देखना है कि म्यांमार की नौसेना तो अपने आपको शक्तिशाली रूप में बदलेगी लेकिन इस देश का भारत के प्रति व्यवहार बदलता है या नहीं. गौरतलब है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश चीन से करीब एक दर्जन पनडुब्बियां लेकर अपने नौसेना बेड़े में शामिल कर चुके हैं. बांग्लादेश में इन पनडुब्बियों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न खड़े हो गए थे. इससे उसने चीन से सीमित दूरी बना ली.
वैसे बांग्लादेश भी हमसे छिटक ही गया था. प्रधानमंत्नी शेख हसीना को कहना पड़ा था कि उन्होंने अपनी रसोई में प्याज पर बंदिश लगा दी है. भारत ने उन दिनों प्याज निर्यात पर रोक लगा दी थी. बाद में भारत को भूल का अहसास हुआ. बीते दिनों भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला बांग्लादेश गए और प्रधानमंत्नी से मिले.
इसके अलावा उनकी कूटनीतिक और फौजी बैठकें भी हुईं. कोरोना काल में बांग्लादेश की प्रधानमंत्नी ने सिर्फ भारतीय दूत से मिलना पसंद किया. देखा जाए तो नेपाल के साथ बांग्लादेश भी भारत से भावनात्मक रूप से जुड़ा है. बांग्ला भाषा, साहित्य, संस्कृति और सरोकार दोनों देशों को एक मंच पर लाते हैं.
गुरु देव रवींद्र नाथ टैगोर वहां के राष्ट्रगीत के रचयिता हैं और इस देश के स्वतंत्नता संग्राम की दास्तान बिना भारतीय सहयोग के नहीं लिखी जा सकती. इसलिए इस देश के साथ रिश्तों में हिंदुस्तान को स्थायी तौर पर संवेदनशील रहना चाहिए.
श्रीलंका का मामला भी ऐसा ही है. पूरी तरह चीन के चंगुल में फंसे इस सुंदर द्वीप-देश ने अपने को मुक्त कर सबसे पहले ‘भारत और भारत जैसा कोई मित्न नहीं’ का ऐलान किया था. मालदीव पहले ही चीन से छिटक चुका है. मान सकते हैं कि भारतीय विदेश नीति ने अपनी परंपरागत पुरानी राह पकड़ ली है. इसी में भलाई है.