पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: अंधेरे की सियासत में कैसे फैले लोकतंत्र का उजियारा

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: May 22, 2019 07:07 AM2019-05-22T07:07:46+5:302019-05-22T07:07:46+5:30

अब तो न मुद्दे मायने रखते हैं न ही उम्मीदवार. न ही संसद की वह गरिमा बची है जिसके आसरे जनता में भावनात्मक लगाव जागे कि संसद चल रही है तो उनकी जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर बात होगी, रास्ता निकलेगा.

Indian Democracy is almost fail in dirty politics | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: अंधेरे की सियासत में कैसे फैले लोकतंत्र का उजियारा

प्रतीकात्मक तस्वीर

अंधेरा घना है और अंधेरे की सियासत तले लोकतंत्न का उजियारा खोजने की कोशिश हो रही है. यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट आज लोकतंत्न के खतरे में होने का ऐलान कर दे और देश में आह तक न हो. न्यायपालिका खुद के संकट को उभारे और समाज में कोई हरकत न हो.

चुनाव आयोग की स्वतंत्न पहचान खुले तौर पर गायब लगे और आयोग के भीतर से ही आवाज आए कि सत्तानुकूल न होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है या सत्ता के विरोध के स्वर को भी चुनाव आयोग में दर्ज नहीं किया जाता और समाज के भीतर कोई हलचल नहीं होती. एक तरफ ईवीएम के जरिए तकनीकी लोकतंत्न को जीने का सबब हो तो दूसरी तरफ यही ईवीएम सत्ता के लिए खिलौना सरीखा हो चला हो.पर देश तो लोकतंत्न तले जीने का आदी है तो कोई उफ् नहीं निकलता. आश्चर्य तो इस बात पर भी नहीं हो पा रहा है कि रिजर्व बैंक जनता के पैसों की लूट के लिए समूची बैकिंग प्रणाली को सत्ता के कदमों में झुकाने को तैयार है और जनता के भीतर से कोई विरोध हो नहीं पाता. खुले तौर पर जनता के जमा रुपयों की कर्ज के नाम पर लूट होती है. रईस कानून व्यवस्था को धता बता कर फरार हो जाते हैं. कैसे और किस तरह से पीने लायक पानी, स्वच्छ पर्यावरण, हेल्थ सर्विस सब कुछ बिगाड़ कर सत्ताधारियों ने लोकतंत्न का पाठ चुनाव के एक वोट पर जा टिकाया और बेबस देश सिर्फ देखता रहा. कैसे बेबसी से मुक्ति के लिए हर पांच बरस बाद होने वाले चुनाव को ही उपचार मान लिया गया. यानी सत्ता परिवर्तन के जरिए लोकतंत्न के मिजाज को जीना और सत्ता के लिए देश में लूटतंत्न को कानूनी जामा पहना देना, दोनों हालात को  देश के हर वोटर ने जिया है और हर नागरिक ने भोगा है, इससे इंकार कौन करेगा.

 
 अब तो न मुद्दे मायने रखते हैं न ही उम्मीदवार. न ही संसद की वह गरिमा बची है जिसके आसरे जनता में भावनात्मक लगाव जागे कि संसद चल रही है तो उनकी जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर बात होगी, रास्ता निकलेगा.   न ही कोई संवैधानिक संस्थान है जो सत्ताधारियों पर लगते आरोपों की जांच तो दूर, सत्ता की मर्जी के बिना अपने ही काम को कर सके. न ही हर पांच बरस बाद लोकतंत्न को जीने की स्वतंत्नता का एहसास कराने वाला चुनाव आयोग है. और न ही हमारे पास राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का वो एहसास है जो राजनीति को सहकार-सरोकार से जोड़ने की दिशा में ले जाए. अब हमारे पास मजदूरों की ऐसी फौज है जिसके लिए कोई काम है नहीं. किसानों की बदहाली है जिनके लिए सिवाय खुदकुशी के कुछ देने की स्थिति में सत्ता नहीं है.   अरबपतियों की ऐसी कतार है जो देश में लूट मचाकर दुनिया के बाजार में अपनी धमक बनाए हुए हैं. बेरोजगारों की ऐसी फौज है जो राजनीतिक पार्टियों में नौकरी कर रही है या करियर बनाने के लिए नेताओं की चाकरी में जुटी है.

Web Title: Indian Democracy is almost fail in dirty politics