राजेश बादल का ब्लॉगः जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
By राजेश बादल | Published: May 15, 2019 07:16 AM2019-05-15T07:16:15+5:302019-05-15T07:16:15+5:30
भारतीय लोकतंत्न के इस गुलदस्ते की खुशबू क्या थी? सहिष्णुता, असहमति के सुरों का सम्मान और हर हिंदुस्तानी की रगों में दौड़ते खून में देश को आगे ले जाने की हरारत भरी तड़प. हिंदू धर्म का सार यही है. हमारे धर्म ग्रंथ भी यही कहते हैं.
संकट है. भारत की आत्मा पर संकट है. लोकतंत्न पर संकट है. इस बार के चुनाव में सियासत ने हम सबको कठघरे में खड़ा कर दिया है. सत्तर साल बाद हमारा सफर एक ऐसे पड़ाव पर दिखाई दे रहा है, जिसके आगे धुंध ही धुंध है. समूचा विश्व जब भारतीय लोकतंत्न को ईष्र्यालु नजरों से देख रहा था, हमने अपने हाथों ही उसे नजर लगा दी है. उसे बचाने के लिए काला टीका लगाने वाले पूर्वज भी सहमे-सहमे से विलाप मुद्रा में हैं. यह देश अपने उन महान पुरखों से विद्रोह कर बैठा है, जिनकी कुर्बानियों की बदौलत आज यहां खड़ा है.
भारतीय लोकतंत्न के इस गुलदस्ते की खुशबू क्या थी? सहिष्णुता, असहमति के सुरों का सम्मान और हर हिंदुस्तानी की रगों में दौड़ते खून में देश को आगे ले जाने की हरारत भरी तड़प. हिंदू धर्म का सार यही है. हमारे धर्म ग्रंथ भी यही कहते हैं. बीते सात दशकों में अगर पाकिस्तान एक विनाशक मुल्क बन कर रह गया है तो सिर्फ इसलिए कि वहां जम्हूरियत के लिए तड़पती अवाम को तानाशाही के घुड़सवारों ने बार-बार रौंदा है.
आज भी वह हिंदुस्तान बनने के सपने देख रहा है. मजहब के आधार पर बंटवारे की हकीकत उजागर हो चुकी है. लेकिन अब हिंदुस्तान ने अपने लिए एक आत्मघाती हरावल टुकड़ी तैयार कर ली है. हम पाकिस्तान बन जाने के लिए उतावले हो रहे हैं. क्योंकि पाकिस्तान हिंदुस्तान नहीं बन सका इसलिए हम पाकिस्तान बन जाना चाहते हैं. लेकिन पाकिस्तान का हिंदुस्तान बनना बहुत कठिन है.
हां हिंदुस्तान को पाकिस्तान बनने में वक्त नहीं लगेगा. तो हम क्या चाहते हैं? चार बरस तक हमारे विद्वान पुरखों की दिन-रात मेहनत से तैयार संविधान को हम एक रद्दी कागज का टुकड़ा क्यों साबित करना चाहते हैं? ज्ञान और अतीत पर गर्व करने वाले विद्वान अपनी प्रतिभा को सरेआम सूली पर टांग दिया जाना खामोशी से क्यों देख रहे हैं? याद रखना होगा कि संविधान निर्माताओं ने राज्यों की तर्ज पर केंद्र में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान क्यों नहीं किया था.
तत्कालीन प्रधानमंत्नी जवाहर लाल नेहरू ने अनेक अवसरों पर लोकतंत्न की आत्मा को मजबूत बनाए रखने पर जोर दिया. वे सोचते थे कि हजार साल की राजशाही से अगर मुक्ति मिली है तो भविष्य में इसके बीज दोबारा अंकुरित नहीं होने चाहिए. उस दौर के हिंदुस्तान में राजे-रजवाड़े जिस तरह अपनी सत्ता खोने के बाद व्यवहार कर रहे थे, उससे लोकतंत्न की चाह रखने वाला प्रत्येक जनप्रतिनिधि आशंकित भी था.
लगता था कि अंग्रेजों के जाने के बाद दो-चार साल में ही सामंतशाही फिर हावी हो जाएगी और जनतंत्न कहीं कपूर की तरह उड़ जाएगा. यूरोप और पश्चिम के जानकारों, पत्नकारों और राजनेताओं का स्पष्ट मानना था कि भारत में लोकतंत्न बिखर जाएगा और एक देश के रूप में उसका बना रहना असंभव है. ऐसे में जवाहरलाल नेहरू इस तरह की सारी आशंकाओं को निर्मूल कर देना चाहते थे. संविधान सभा के सदस्यों ने अनेक बार इस पर अनौपचारिक विमर्श भी किया था.
संभवत: इसी कारण से राज्यों में तो राष्ट्रपति शासन का प्रावधान किया गया, मगर केंद्र में राष्ट्रपति शासन की कोई संभावना ही नहीं रखी गई थी. व्यवस्था की गई कि अगले चुनाव का समय रहते ऐलान कर दिया जाए और निर्वाचन प्रक्रिया संपन्न होने तक केंद्र सरकार एक काम चलाऊ सरकार की तरह ही व्यवहार करे. उसे नीतिगत फैसले लेने से भी बचना चाहिए.
कल्पना करिए अगर केंद्र में चुनाव की घोषणा होते ही राष्ट्रपति शासन लग जाए और केंद्र सरकार की सारी शक्तियां राष्ट्रपति के हाथ में आ जाएं. उसके बाद अगर राष्ट्रपति चुनाव न कराए तो उसे तानाशाह बनने से कौन रोक सकता था. भारतीय गणतंत्न के लिए एक नए किस्म का खतरा खड़ा हो जाता. तत्कालीन प्रधानमंत्नी जवाहरलाल नेहरू की यह दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने हिंदुस्तान में अधिनायक पनपने का व्यवस्थागत संवैधानिक चोर दरवाजा भी बंद कर दिया. अफसोस! जिस शिखर व्यक्तित्व का देश को कृतज्ञ होना चाहिए, उसे खलनायक और सारी समस्याओं की जड़ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है और हम तटस्थ हैं. हमारी विचार संवेदना को जैसे ग्रहण लग गया है.
हालांकि आजादी के बाद एक समय ऐसा भी आया था, जब इस देश को तानाशाही के काले बादलों ने ढक लिया था. लेकिन बौद्धिक और राजनीतिक चेतना ने उन बादलों को चीर कर हिंदुस्तान के आसमान पर चमकते लोकतंत्न का सूरज सारे संसार को दिखाया था. जयप्रकाश नारायण उसके सूत्नधार बन कर उभरे थे. बाद में करिश्माई नेत्नी इंदिरा गांधी ने भी माना कि आपातकाल लगाकर अधिकारों का केंद्रीकरण करना भूल थी. आज लोकनायक जयप्रकाश नहीं हैं मगर लोकतंत्न को कमजोर करने वाली ताकतों और तानाशाही के विरोध के प्रतीक के रूप में उनके विचार मौजूद हैं.
आज प्रचार सभाओं में खुलेआम गाली-गलौज हो रही है, सार्वजनिक मंचों पर एक दूसरे को कालिख पोती जा रही है और हम ताली बजा रहे हैं! प्रजातांत्रिक शिखर संस्थाओं का यश मिट्टी में मिलाया जा रहा है और हम खामोश हैं. यूरोप के देश जब भविष्य के सपने बुन रहे हैं तो हम अतीत की कपोलकल्पित कथाओं में उलझ कर रह जाना चाहते हैं!