प्रचंड के नेपाल से भारत को रहना होगा सजग, चीन के साथ संबंधों में काफी दिलचस्पी दिखा रही नेपाली सरकार
By शोभना जैन | Published: December 31, 2022 12:04 PM2022-12-31T12:04:56+5:302022-12-31T12:06:10+5:30
फरवरी 2018 और जुलाई 2021 के बीच जब ओली नेपाल के प्रधानमंत्री थे, तब भारत और नेपाल के बीच संबंध कुछ तनावपूर्ण-असहज हो गए थे। यह बात अहम है कि चीन समर्थक रुख के लिए जाने जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली के समर्थन से बनी नई नेपाली सरकार ने चीन के साथ संबंधों में काफी दिलचस्पी दिखाई है।
नेपाल में गत नवंबर में शांतिपूर्ण चुनावों के संपन्न होने के बाद नई सरकार के गठन को लेकर भारी अनिश्चितता और राजनीतिक जोड़-तोड़ के बाद गत 26 दिसंबर को नाटकीय घटनाक्रम के बाद आखिरकार विद्रोही पूर्व माओवादी नेता और चीन के साथ नजदीकियों के लिए चर्चित पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ ने तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री की कमान संभाल ली। लेकिन छह दलों वाले वाम गठबंधन के नेता के रूप में सरकार बनाने के लिए जितनी जोड़-तोड़ और मुश्किलों का सामना करना पड़ा, प्रचंड सरकार के सम्मुख चुनौतियां भी उतनी ही हैं। नेपाल की घरेलू राजनीति के लिए यह गठबंधन नई चुनौतियों का दौर तो होगा ही, जिसके चलते इस सरकार की नीतियों पर आम नेपाली जन की निगाहें हैं, लेकिन जिस जोड़-तोड़ और नाटकीय घटनाक्रम के बाद यह सरकार बनी, इसके सम्मुख आने वाली चुनौतियों के साथ ही इसकी स्थिरता को लेकर प्रश्नचिह्न भी हैं।
घरेलू और आर्थिक मुद्दों से निबटने की चुनौतियों के साथ ही नई सरकार की विदेश नीति पर भी विशेष तौर पर क्षेत्र के देशों की निगाहें हैं। खासतौर पर रोटी-बेटी के रिश्तों के साथ बंधे भारत-नेपाल के बीच रिश्तों का स्वरूप कैसा होगा? निश्चय ही ऐसी स्थिति में भारत को नेपाल के साथ संबंधों को आगे बढ़ाते हुए घटनाक्रम पर सावधानी से नजर रखनी होगी। दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि चीन के साथ नजदीकियों के लिए जाने जानेवाले पूर्व माओवादी नेता ‘प्रचंड’, उनके मुख्य समर्थक के.पी. शर्मा ओली के क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर पहले से ही भारत के साथ रिश्ते कुल मिलाकर कुछ अच्छे नहीं रहे हैं। दरअसल, सीपीएन-यूएमएल नेता के.पी. शर्मा ओली को चीन के समर्थक नेता के रूप में देखा जाता है।
फरवरी 2018 और जुलाई 2021 के बीच जब ओली नेपाल के प्रधानमंत्री थे, तब भारत और नेपाल के बीच संबंध कुछ तनावपूर्ण-असहज हो गए थे। यह बात अहम है कि चीन समर्थक रुख के लिए जाने जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली के समर्थन से बनी नई नेपाली सरकार ने चीन के साथ संबंधों में काफी दिलचस्पी दिखाई है। वहां नई नाटकीय सहमतियों के पटाक्षेप के बाद यह आश्चर्यजनक घटनाक्रम भारत और नेपाल के बीच संबंधों की दृष्टि से शायद अच्छा न भी आंका जा रहा हो। माना जा रहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा की भारतीय नेताओं के साथ जो समझबूझ थी, उसके चलते वे भारत के साथ रिश्तों को मजबूत करने के लिए अपेक्षाकृत बेहतर हो सकते थे।
गौरतलब है कि पिछले साल ओली की सरकार गिराने वाले प्रचंड के पूर्व में चीन के साथ घनिष्ठ संबंध रहे हैं प्रचंड अपने पहली साझेदारी वाले गठबंधन को छोड़ यूएमएल से हाथ मिलाने के बाद प्रधानमंत्री बने हैं। भारत के बारे में प्रचंड ने पहले कहा था कि नेपाल में ‘बदले हुए परिदृश्य’ के आधार पर और 1950 की मैत्री संधि में संशोधन तथा कालापानी एवं सुस्ता सीमा विवादों को हल करने जैसे सभी बकाया मुद्दों के समाधान के बाद भारत के साथ एक नई समझ विकसित करने की आवश्यकता है।
नेपाल मामलों के एक विशेषज्ञ के अनुसार अगर भारत-नेपाल रिश्तों के आर्थिक पहलू को समझें तो भारत ने 2020 में नेपाली संसद द्वारा नए राजनीतिक मानचित्र को मंजूरी देने के बाद पड़ोसी देश के इस कदम को ‘कृत्रिम विस्तार’ करार दिया था। नेपाल पांच भारतीय राज्यों -सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के साथ 1850 किमी से अधिक की सीमा साझा करता है। किसी बंदरगाह की गैर-मौजूदगी वाला पड़ोसी देश नेपाल माल और सेवाओं के परिवहन के लिए भारत पर बहुत अधिक निर्भर करता है। नेपाल की समुद्र तक पहुंच भारत के माध्यम से है और यह अपनी जरूरतों की चीजों का एक बड़ा हिस्सा भारत से और इसके माध्यम से आयात करता है। भारत और नेपाल के बीच 1950 की शांति और मित्रता संधि दोनों देशों के बीच विशेष संबंधों का आधार है।
बहरहाल विदेश नीति में संतुलन साधना प्रचंड सरकार की एक बड़ी चुनौती होगी। नेपाल के सामने अपने पड़ोसी देशों और अन्य देशों के साथ सहज संबंध बनाए रखने के लिए संतुलित नीति अपनाने की चुनौती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रचंड को बधाई देने वाले पहले विदेशी नेता थे। विदेश नीति के जानकारों का मानना है कि वैसे तो प्रचंड और भारत के रिश्ते कुल मिलाकर सामान्य कहे जा सकते हैं लेकिन जिस तरह से वाम नीत गठबंधन पर चीन समर्थक ओली की पकड़ भारी है, उसके चलते दोनों ही देशों को अपने खास रिश्तों के मद्देनजर एक-दूसरे को मजबूती से जोड़ने वाले मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने पर बल देना चाहिए।