कहीं आत्मघाती न बन जाए लगातार बढ़ता अविश्वास

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: June 23, 2025 07:10 IST2025-06-23T07:10:13+5:302025-06-23T07:10:50+5:30

अनेक बार प्रदर्शित किए जाने के बावजूद मतदाता सूची पर शक और सवाल चुनाव बाद ही सामने आते हैं और अविश्वास पैदा करने का प्रयास किया जाता है.

Increasing mistrust may turn suicidal | कहीं आत्मघाती न बन जाए लगातार बढ़ता अविश्वास

कहीं आत्मघाती न बन जाए लगातार बढ़ता अविश्वास

आम आदमी का विश्वास लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति होती है, जो अनेक प्रकार से मजबूत रहती है. चुनावों से जनप्रतिनिधियों के नेतृत्व में नीति निर्धारण, कार्यपालिका की ओर से नीतियों के अनुसार जनसेवा और न्याय पालिका की ओर से अन्याय की स्थिति में न्याय दिया जाता है. इनके साथ ही अलग-अलग संस्थाएं जुड़ी रहती हैं. किंतु पिछले कुछ सालों से भारतीय लोकतंत्र की भावना और ताकत से ईर्ष्या रखने वाले इन पर हमले का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ते हैं.

पहले आक्रमण विदेशों से किया जाता था. अब कुछ भारतीय भी विदेशी संस्थाओं के औजार बन गए हैं. वे एक रणनीति के तहत तैयार किए जाते हैं और आम जनता के बीच विश्वसनीय संस्थाओं पर तथ्यों से परे आरोप लगाए जाते हैं, जिससे चिंता का वातावरण तैयार होता है. फिर चाहे विद्यार्थियों की परीक्षा हो या अदालत के फैसले या फिर चर्चित चुनाव हों, सभी स्थानों पर कुछ नए शिगूफे छोड़कर लोगों को विषय से भटकाया जाता है.

असंतोष का वातावरण तैयार किया जाता है. ताजा मामले में शनिवार को चुनाव आयोग ने मतदान के समय के सीसीटीवी फुटेज संरक्षण के लिए समय-सीमा निर्धारित कर दी है. उस पर सवाल हैं. हालांकि चुनावी प्रक्रिया आरंभ से अंत तक आम जन से जुड़ी रहती है.

उसे राजनीतिक दल से लेकर आम आदमी तक देखने और समझने की छूट रहती है. आपत्तियां स्वीकार की जाती हैं किंतु सारे विवाद चुनावी जीत-हार के बाद सामने आते हैं. अनेक बार प्रदर्शित किए जाने के बावजूद मतदाता सूची पर शक और सवाल चुनाव बाद ही सामने आते हैं और अविश्वास पैदा करने का प्रयास किया जाता है. यह जानते हुए भी कि देश का बहुत बड़ा वर्ग उस पर विश्वास कर ही लोकतंत्र मानता है.

यही हाल परीक्षाओं का भी है. मेडिकल की पढ़ाई के लिए ‘नीट’ जैसी परीक्षा के परिणाम के बाद अनेक प्रश्न और घोटाले सामने आने लगते हैं. यह माना जा सकता है कि मेडिकल की पढ़ाई की सीटें कम होने से गलाकाट स्पर्धा हो चली है, लेकिन मेधावी विद्यार्थी का चयन भी तो परीक्षा ही करती है, जिसमें सभी गलत नहीं होते हैं. मगर शोर कुछ इस तरह मचा दिया जाता है कि मानो पूरी परीक्षा ही गड़बड़ी की शिकार हो गई है.

उसे दोबारा आयोजित करने की आवश्यकता है. अविश्वास की परिपाटी पर चलने वाले न्यायालयों पर भी उंगली उठाने से बाज नहीं आते हैं. यह सही है कि कहीं किसी के साथ अन्याय हुआ है तो वह अपनी आवाज उठाए, जिसके लिए हर तंत्र में रास्ते बनाए गए हैं.

मगर स्वार्थ या नाकामी छिपाने के लिए अविश्वास को जगाने की नई परंपरा भारतीय लोकतंत्र में आत्मघाती सिद्ध हो सकती है. भविष्य को देख उस पर चिंता करना आवश्यक है.

अन्यथा संस्थाएं यदि इस प्रकार विश्वसनीयता खोने लगेंगी तो जनतंत्र पर भी सवाल खड़े होने लगेंगे. इसलिए अविश्वास पर कहीं कोई सीमा और गंभीरता का पालन होना चाहिए. चर्चा में बने रहने के लिए बेवजह की चर्चाओं को जन्म नहीं देना चाहिए.

Web Title: Increasing mistrust may turn suicidal

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