डॉ खुशालचंद बाहेती का ब्लॉगः पुलिस मुठभेड़ से मिली खुशी में दोष किसका?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 11, 2019 10:34 AM2019-12-11T10:34:33+5:302019-12-11T10:34:33+5:30

इतिहास गवाह है कि भारत में ही जब मृत्यु दंड का विचार संविधान समिति के समक्ष आया तो उसके अनेक सदस्यों ने अपना विरोध दर्शाया था. बावजूद इसके अत्यंत गंभीर मामलों में फांसी देने की सजा का प्रावधान किया गया.

hyderabad encounter rap murder: Who is to blame for the happiness from police encounter? | डॉ खुशालचंद बाहेती का ब्लॉगः पुलिस मुठभेड़ से मिली खुशी में दोष किसका?

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डॉ खुशालचंद बाहेती

हैदराबाद में सामूहिक बलात्कार के आरोपियों के मुठभेड़ में मारे जाने की खुशी और गम के बीच जघन्य अपराधों के मामलों में फांसी की सजा में विलंब पर सवाल उठना लाजमी है. एक तरफ मृत्यु दंड पर अंतिम विचार करने के अधिकारी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद बच्चों से संबंधित बलात्कार के मामलों पर दया याचिका के प्रावधान को भी खारिज करते हैं तो दूसरी तरफ बड़ी संख्या में बलात्कार की घटनाओं के फांसी के लिए लंबित मामले समाज के सामान्य वर्ग की चिंताओं को बल देते हैं. 

इतिहास गवाह है कि भारत में ही जब मृत्यु दंड का विचार संविधान समिति के समक्ष आया तो उसके अनेक सदस्यों ने अपना विरोध दर्शाया था. बावजूद इसके अत्यंत गंभीर मामलों में फांसी देने की सजा का प्रावधान किया गया. यही नहीं वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र में भी भारत मृत्यु दंड समाप्त करने का विरोध कर चुका है. 

दुनिया के 140 देशों ने मृत्यु दंड को इस तर्क के आधार पर बंद कर दिया है कि उससे अपराधों में कमी नहीं आती है. मगर वह तर्क भारत को स्वीकार्य नहीं है. दूसरी ओर देश में न्याय आयोग की वर्ष 2015 में फांसी रद्द करने की सिफारिश को खारिज करते हुए पोस्को, एट्रोसिटी आदि के मामलों में फांसी के प्रावधान के नए कानून बनाए गए हैं. फांसी के पक्ष में इतनी तरफदारी होने के बावजूद लंबित मामलों में देरी आम आदमी के मन में असंतोष का कारण बनती है. दुर्भाग्य से इसके लिए राष्ट्रपति कार्यालय को जिम्मेदार ठहराने पर मजबूर होना पड़ता है. वर्तमान स्थिति में देश की जेलों में 371 कैदी फांसी की सजा पा चुके हैं, लेकिन दंड पर अमल बाकी है.

आम तौर पर फांसी की सजा वाले मामलों में पुलिस निर्धारित समय में जांच पूरी करती है, जिसकी सीधी वजह विलंब से आरोपी को जमानत मिलने का डर रहता है. यहां तक की देरी के लिए जांच अधिकारी को ही जिम्मेदार माना जाता है. न्यायालय में भी न्यायालयीन हिरासत के कारण मुकदमे को प्रमुखता से सुना जाता है. फिर भी सुनवाई पूरी होने में कई साल लग जाते हैं. 

इसका कारण अधिक मुकदमे और कम अदालतें हैं. सामान्यत: यदि सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय फांसी की सजा को कायम रखता है तो आरोपी को सीआरपीसी की धारा 433 के तहत राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका देने का अधिकार मिलता है. 

संविधान के अनुच्छेद 72 के अनुसार राष्ट्रपति को सजा रद्द, कम और खारिज करने का अधिकार है. मगर राष्ट्रपति कार्यालय अपना निर्णय सुनाने में लंबा समय लगाता है. अपवाद के तौर पर मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब की फांसी का मामला छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी मामले धीमी गति से चलते हैं.

 कसाब के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 29 अगस्त 2012 को फांसी की सजा बरकरार रखी, जिसके बाद गृह मंत्रलय ने 17 अक्तूबर 2012 को दया याचिका राष्ट्रपति के पास भेजी और जिन्होंने 15 नवंबर 2012 को उसे ठुकरा दिया. वहीं दूसरी तरफ तथ्य गवाह हैं कि आम तौर पर किसी दया याचिका पर विचार का समय पांच से पंद्रह साल तक का होता है, जिसकी वजह से ही आजादी के बाद से अब तक 755 को फांसी की सजा मिल पाई है.

आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1948 से 54 तक राष्ट्रपति ने 1410 याचिकाओं पर निर्णय लिया. वर्ष 1955 से 64 के बीच 2083, वर्ष 1965 से 74 के बीच 1034 दया याचिकाओं के फैसले सुनाए गए. मगर वर्ष 1975 से 84 के बीच 173, वर्ष 1985 से 94 के बीच 45 और वर्ष 1995 से 2006 के बीच सबसे कम नौ मामलों में फैसले सुनाए गए. वर्ष 2006 से 2017 के बीच 71 मामलों पर निर्णय हुआ. इनको समग्र दृष्टि से देखा जाए तो केवल 32.5 प्रतिशत मामलों में ही फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदला गया. 

राष्ट्रपति के कार्यकाल के हिसाब से देखा जाए तो भूतपूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने सर्वाधिक 40 याचिकाओं पर निर्णय सुनाया, सभी को खारिज भी किया. भूतपूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने 14 में से 10 याचिकाओं को वापस भेजा और चार को आजीवन कारावास में बदला. वहीं भूतपूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने किसी याचिका पर निर्णय नहीं लिया. 

भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दो याचिकाओं पर फैसला सुनाया, जिसमें एक को फांसी दूसरे को उम्र कैद हुई. पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने फांसी के  सर्वाधिक 86 फीसदी मामलों में सजा को उम्र कैद में बदला. उन्होंने अपने कार्यकाल में 22 में से 19 को उम्र कैद तथा तीन मामले खारिज किए. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने कार्यकाल में 49 में से 42 आवेदनों को वापस भेजा और सात को उम्रकैद में बदला. मुखर्जी के कार्यकाल में एक भी याचिका लंबित नहीं रही. वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गत वर्ष एक याचिका खारिज की और बीते सप्ताह निर्भया मामले में सरकार ने दया याचिका उनके समक्ष विचारार्थ भेजी है.

देश में आखिरी फांसी वर्ष 2015 में याकूब मेमन को दी गई. उसके बाद किसी भी मामले पर निर्णय नहीं हुआ. वर्ष 1999 से अब तक केवल चार ही व्यक्ति फांसी के फंदे पर झूले. वर्ष 2016 में 136 और वर्ष 2017 में 109 लोगों को अदालत ने फांसी की सजा सुनाई. इनमें 43 मामले यौन अपराधों से जुड़े हैं. ऐसे में बलात्कार के मामलों में फांसी की सजा को कैसे पूरा किया जाएगा, यह सवाल समूची व्यवस्था के समक्ष है. फिलहाल उसका कोई निराकरण भी नजर नहीं आता है. ऐसे में यदि आम जनता किसी मुठभेड़ से खुश होती है तो दोष किसका?

Web Title: hyderabad encounter rap murder: Who is to blame for the happiness from police encounter?

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