हिंदी की जगह लेती जा रही है हिंग्लिश, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: August 7, 2020 06:01 PM2020-08-07T18:01:23+5:302020-08-07T18:01:23+5:30

दसवीं कक्षा में 18.3 प्रतिशत परीक्षार्थी और बारहवीं कक्षा में 11.3 प्रतिशत परीक्षार्थी हिंदी के परचे में फेल हो गए. और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ. पिछले कई सालों से हिंदी की परीक्षा में छात्र-छात्रओं के नाकाम होने की संख्या बढ़ती जा रही है.

Hinglish is replacing Hindi Abhay Kumar Dubey's blog | हिंदी की जगह लेती जा रही है हिंग्लिश, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

अतिसाधारण शब्दों की जगह भी अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल किया जाएगा. इसके क्या परिणाम हो सकते हैं- यह सोचने की बात है. (file photo)

Highlightsहिंदी के छात्र अपनी उत्तर-पुस्तिकाओं में हिंदी के बजाय ‘हिंग्लिश’ के शब्दों का इस्तेमाल करते पाए गए और इस चक्कर में उनके नंबर कट गए. मसलन, बीमारी की जगह उन्होंने ‘डिजीज’, आत्मविश्वास की जगह ‘कान्फिडेंस’, कानून की जगह ‘रूल’ और सुंदर की जगह ‘गुड’ लिखा. इससे क्या संकेत मिलता है?लिखाई-पढ़ाई के दायरों में भी सतर्कतापूर्वक हिंदी या अंग्रेजी अलग-अलग इस्तेमाल करने के बजाय नई पीढ़ी हिंग्लिश का प्रयोग करने लगी है.

सुधीजनों को याद होगा कि जुलाई के मध्य में मीडिया मंचों पर एक बहस चली थी कि मातृभाषा होने के बावजूद हिंदी में इतनी बड़ी संख्या में छात्रों के फेल होने की वजह क्या है? बहस का आधार था उत्तर प्रदेश बोर्ड इम्तिहानों का परिणाम.

इसके अनुसार दसवीं कक्षा में 18.3 प्रतिशत परीक्षार्थी और बारहवीं कक्षा में 11.3 प्रतिशत परीक्षार्थी हिंदी के परचे में फेल हो गए. और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ. पिछले कई सालों से हिंदी की परीक्षा में छात्र-छात्रओं के नाकाम होने की संख्या बढ़ती जा रही है.

मीडिया में आने वाली इस तरह की रपटों की एक सतही जांच भी की जाती है. इस जांच से एक तथ्य यह निकल कर आया कि हिंदी के छात्र अपनी उत्तर-पुस्तिकाओं में हिंदी के बजाय ‘हिंग्लिश’ के शब्दों का इस्तेमाल करते पाए गए और इस चक्कर में उनके नंबर कट गए. मसलन, बीमारी की जगह उन्होंने ‘डिजीज’, आत्मविश्वास की जगह ‘कान्फिडेंस’, कानून की जगह ‘रूल’ और सुंदर की जगह ‘गुड’ लिखा. इससे क्या संकेत मिलता है?

अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल की साधारण सी लगने वाली आदत धीरे-धीरे उस मुकाम तक पहुंच गई है

इससे पता यह चलता है कि रोजमर्रा की साधारण बातचीत में हिंदी बोलते-बोलते अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल की साधारण सी लगने वाली आदत धीरे-धीरे उस मुकाम तक पहुंच गई है जब लिखाई-पढ़ाई के दायरों में भी सतर्कतापूर्वक हिंदी या अंग्रेजी अलग-अलग इस्तेमाल करने के बजाय नई पीढ़ी हिंग्लिश का प्रयोग करने लगी है.

अर्थात, हिंग्लिश ने एक साधारणत: बोली जाने वाली ‘क्रियोल’ या ‘पिजिन’ (खिचड़ी भाषाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली संज्ञाएं) न होकर बाकायदा एक लिखित भाषा बनने की तरफ अपने शुरुआती कदम बढ़ा दिए हैं. यह एक ऐसी भाषा होगी जिसमें वाक्य-रचना और व्याकरण हिंदी का होगा, लेकिन हिंदी के तकनीकी रूप से कठिन ही नहीं, बल्कि अतिसाधारण शब्दों की जगह भी अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल किया जाएगा. इसके क्या परिणाम हो सकते हैं- यह सोचने की बात है.

इसका पहला परिणाम तो यह निकला है कि अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार के विश्वव्यापी तंत्र (जो ब्रिटिश कौंसिल और यूएस इंफॉर्मेशन सर्विस के नेतृत्व में पूरी दुनिया में अरबों-खरबों पाउंडों और डॉलरों के व्यय के दम पर लगातार चलता रहता है) ने एक सुचिंतित परियोजना के तौर पर हिंग्लिश को एक लिखित भाषा बनाने की बौद्धिक मुहिम शुरू कर दी है.

पिछले कई सालों से सम्मेलन और सेमिनार वगैरह आयोजित किए जा रहे हैं

इसके लिए पिछले कई सालों से सम्मेलन और सेमिनार वगैरह आयोजित किए जा रहे हैं. जाहिर है कि ¨हंग्लिश अगर एक लिखित भाषा के तौर पर हिंदीभाषी समाज में अपना हस्तक्षेप करती है तो वह केवल हिंदी की जगह ही लेगी. अंग्रेजी से जुड़े भारतीय समाज का आकार तेजी से बढ़ता चला जाएगा.

कुछ हिंदी अखबारों में वैसे ही माता-पिता की जगह ‘पैरेंट’ लिखा जाने लगा है. दिल्ली से निकलने वाले एक अखबार में अभी ही नौकरी की जगह ‘जॉब’, सक्रिय की जगह ‘एक्टिव’ और मुख्यमंत्री की जगह ‘सीएम’ का प्रयोग किया गया है.

अब अगर कोई दसवीं-बारहवीं का छात्र इस अखबार को पढ़ेगा तो उसकी हिंदी बेहतर होगी या ¨हंग्लिश? जो ¨हंग्लिश यूं ही बेख्याली में बोली जाती थी, और जिसे लिखने में परहेज किया जाता था, वह अब सायास लिखी जा रही है. जाहिर है कि इस नजारे के बनने में देर तो लग सकती है, लेकिन अगर जो चल रहा है, वही चलता रहा तो अंतिम परिणाम यही निकलेगा. हिंदी केवल तकनीकी तौर पर रह जाएगी.

क्रियोलीकरण और पिजिनीकरण औपनिवेशिक स्थितियों की देन

क्रियोलीकरण और पिजिनीकरण औपनिवेशिक स्थितियों की देन हैं. विदेशी हुक्मरानों की भाषा के शब्दों और स्थानीय भाषा की वाक्य रचना को मिलकर यह खिचड़ी भाषा जन्म लेती है. यह राष्ट्रीय सरकारों का काम है कि समाज को इन खिचड़ी भाषाओं से मुक्त कराएं.

इंग्लैंड जैसे देश में भी कभी अंग्रेजी बोलते-बोलते फ़्रांसीसी के शब्दों को बोलना गर्व की बात समझी जाती थी. राजा के दरबार में ऐसी खिचड़ी अंग्रेजी बोलने वालों की पीठ ठोंकी जाती थी. लेकिन अठारहवीं सदी में वहां के भाषाशास्त्रियों, वैयाकरणों, कोशकारों और उच्चरण विशेषज्ञों ने एक जबरस्त मुहिम चलाई, और पचास-साठ साल में इस खिचड़ी भाषा से मुक्ति प्राप्त कर ली.

यहां साफ करना जरूरी है कि हिंदी में अंग्रेजी या किसी दूसरी भाषा के शब्दों के आने पर रोक नहीं लगाई जा सकती. सभी भाषाएं इसी तरह से विकसित होती हैं. लेकिन वे दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपने शब्दों को छोड़ कर नहीं अपनातीं.

दूसरी भाषाओं के शब्दों को धीरे-धीरे आत्मसात कर लेती हैं, और फिर हम उन्हें अपनी ही भाषा के शब्दों की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं. मसलन, कुर्ता तुर्की शब्द है, पाजामा फारसी शब्द है, चर्चा भी फारसी शब्द है, कारतूस फ्रांसीसी से आया है, तौलिया और तंबाकू पुर्तगाली से मिला है, हवा और कातिल जैसे शब्द तुर्की मूल के हैं.

स्टेशन, बोर्ड, इंजीनियर और न जाने कितने शब्द अंग्रेजी से लिए गए हैं. लेकिन हम इन सभी शब्दों को हिंदी का मान कर ही आराम से इस्तेमाल करते हैं. ये शब्द क्रियोलीकरण नहीं करते, बल्कि हिंदी को समृद्ध करते हैं. क्या नई शिक्षा नीति इस समस्या पर विचार करती है? पहले छह साल हिंदी में या मातृभाषाओं में पढ़ाने का तब तक कोई लाभ नहीं होने वाला जब तक इस समस्या का कोई न कोई समाधान न तलाश लिया जाए. लेकिन, इसके लिए कम से कम इस समस्या को समस्या तो मानना पड़ेगा.

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