रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: लोकमंगल की भावना एवं हिन्दी का जीनियस
By रंगनाथ सिंह | Published: March 21, 2022 02:47 PM2022-03-21T14:47:32+5:302022-03-21T14:47:32+5:30
विनोद कुमार शुक्ल की मुक्ति-कामना के सन्दर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा बहुप्रयुक्त जुमला 'लोकमंगल की भावना' और डॉ धर्मवीर द्वारा प्रयुक्त शब्द 'हिन्दी का जीनियस' पर एक फौरी विचार।
पिछले कुछ दिनों से एक शब्द जहन में बार-बार गूँज रहा है- लोकमंगल की भावना। शायद रामचंद्र शुक्ल ने इसे हिन्दी में लोकप्रिय बनाया है। पढ़ना एक शौक है, लिखना एक कर्म। साहित्य सृजन या लेखन कर्म के कई कारण हो सकते हैं। लोकप्रियता, आत्मप्रतिष्ठा, धनलिप्सा, अमरता इत्यादि। शुक्ल जी को इन कारणों में 'लोकमंगल की भावना' शायद सबसे ज्यादा पसन्द थी। शुक्ल जी की कृति 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' हिन्दी क्लासिक में शुमार होती है। उन्हें हिन्दी साहित्य का पहला व्यवस्थित इतिहास लिखने का श्रेय दिया जाता है। हम कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास के जन्म से ही हिन्दी भाषा लोकमंगल की भावना से नाभिनालबद्ध हो गयी थी।
पिछले कुछ दिनों में एक और शब्द जहन में लौट आया है। डॉ धर्मवीर की किताब 'हिन्दी का आत्मा' पढ़ते हुए। डॉ धर्मवीर ने बारम्बार 'हिन्दी का जीनियस' शब्द का प्रयोग किया है। जीनियस यानी 'श्रेष्ठतम मेधा'। कोरोनाकाल में पहली बार किशोरीदास वाजपेयी का 'हिन्दी शब्दानुशासन' पढ़ा। पढ़कर अभिभूत हो गया था। डॉ धर्मवीर की किताब की भूमिका पढ़कर पता चला कि वो भी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के बड़े प्रशंसक हैं। डॉ धर्मवीर शुक्ल जी के कठोर आलोचक रहे हैं। शुक्ल जी, किशोरीदास वाजपेयी और डॉ धर्मवीर तीनों ही हिन्दी के जीनियस हैं और इन तीनों के दृष्टियों के संगम से हिन्दी की एक समझ बनती है जिससे भविष्य के लिए दृष्टि मिल सकती है।
हिन्दी जनभाषा है। इसकी मूल प्रेरणा लोकमंगल है। अभी हिन्दी को उच्च वर्गीय भाषाओं संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी ने इसे आच्छादित कर रखा है। हिन्दी ने एक महान आत्मा की तरह समावेशी प्रवृत्ति दिखाते हुए इन तीनों भाषाओं से श्रेष्ठ चीजें ग्रहण की हैं। प्रतिक्रियावादी तरीके से उन्हें खारिज करके अपने अहम की तुष्टि को तरजीह नहीं दी। बहुत से लोग हिन्दी को लेकर हताश-निराश रहते हैं। इनमें से कुछ तो हिन्दी के सहृदयी हितैषी हैं, बाकी भाषा की देह से चिपके जोंक हैं जो हिन्दी का खून पीकर मोटे होते जाने को ही हिन्दी-सेवा जताते हैं।
किसी भाषा के सामाजिक विकास में राजसत्ता की भूमिका सबसे बड़ी होती है। हमारे देश में फारसी और अंग्रेजी राजसत्ता के दम पर ही सभी सांस्कृतिक संस्थानों पर हावी हो गयीं। राजसत्ता द्वारा पोषित भाषा की 'कल्चरल हेजेमनी' का सर्वोत्तम उदाहरण गालिब लगते हैं। गालिब की हिन्दी शायरी की वजह से वो भारत के महान शायरों में गिने जाते हैं लेकिन वो खुद ताउम्र अपनी असल भाषा को लेकर एहसासे-कमतरी में जीते रहे। उन्हें अपना फारसी कलाम, हिन्दी कलाम से श्रेष्ठ लगता रहा। गालिब का फारसी कलाम कैसा है, इसका अध्ययन नहीं किया है लेकिन इतना तो जरूर समझता हूँ कि फारस में गालिब का वह कद कभी नहीं रहा है जो रूमी और सादी का है। खैर, बात सत्ता और भाषा की हो रही थी।
यह महात्मा गांधी का जीनियस था कि उन्होंने हिन्दी का महत्व समझा और उसे राजनीतिक रूप से सबल बनाया। बाबासाहब आम्बेडकर वैसे तो बुद्ध के प्रेमी थे लेकिन वो बुद्ध या गांधी की तरह जनभाषा का महत्व समझने में चूक गये। आजादी के आन्दोलन के दौरान सबको उम्मीद थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हिन्दी भाषा को राजनीतिक सत्ता प्राप्त होगी। मगर ऐसा हो न सका। गांधी जी के कई आदर्शों की तरह इस आदर्श का भी आजाद भारत में बुरा हश्र हुआ। एक पूरी जमात ने हिन्दी भाषा के विरोध को ही अपने अस्तित्व का आधार और लक्ष्य बना लिया।
गुलाम और आजाद भारत में जो हिन्दी हितचिंतक बने घूमते थे उनमें भी तीन तरह के लोग बहुसंख्यक थे- संस्कृत या फारसी या अंग्रेजी के मानसिक गुलाम। इन तीनों ने पिछले सौ सालों में इस बात के लिए जीतोड़ प्रयास किया है कि हिन्दी संस्कृत या फारसी या अंग्रेजी बन जाए। अगर आप हिन्दी से जुड़े सांस्कृतिक संस्थानों-प्रतिष्ठानों-प्रकाशनों इत्यादि को देखेंगे तो उनके शीर्ष पर केकड़े सवार हैं। वो सामंती-औपनिवेशिक समाज की कमजोरियों का लाभ उठाकर वायरस की तरह हिन्दी भाषा के देह में घुस चुके हैं। हिन्दी के संस्थानों-प्रतिष्ठानों-प्रकाशनों पर उनका कब्जा हो चुका है। हिन्दी भाषा के विकास में इनका मूल योगदान 'हिन्दी के जीनियस' को कुंठित एवं दमित करना रहा है किन्तु इनके अनचाहे भी आज हिन्दी पहले से बेहतर स्थिति में है। इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में हिन्दी को सही मायनों में राजनीतिक संरक्षण हासिल हुआ लेकिन इसके सांस्कृतिक संस्थानों पर केकड़ों का वर्चस्व जब तक नहीं टूटेगा तब तक 'हिन्दी का जीनियस' राहत नहीं पा सकेगा, न ही लोकमंगल की कामना पूरी हो पाएगी।
अतः यदि आप खुद को हिन्दी हितचिंतक जताते-दिखाते हैं तो यह कहना बन्द कर दें कि बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए छोटे दुष्चरित्र दलाल-जोंक-केकड़े पालने पड़ते हैं। इन जोंकों की वजह से खाती-पीती हिन्दी के बदन में हरदम खून की कमी रहती है। हिन्दी के जीनियस लेखक विनोद कुमार शुक्ल के लहजे में कहूँ तो हिन्दी के बेहतर स्वास्थ्य के लिए उसे इन जोंकों-केकड़ों से मुक्त कराना बेहद जरूरी है।