गुरचरण दास का ब्लॉगः बुरा ही नहीं अच्छा भी हो रहा, उसकी खुशी मनाएं
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: January 18, 2020 06:44 AM2020-01-18T06:44:33+5:302020-01-18T06:44:33+5:30
रिडले ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है. भारत में अत्यधिक गरीबी तेजी से घट रही है. यह 2012 के 22 प्रतिशत से घटकर वर्तमान में 5.5 प्रतिशत पर आ गई है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि भारत पिछले 17 सालों में औसतन 7 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रहा है, जो कि चीन के बाद सबसे तेज है.
नए दशक की शुरुआत में, जब इतने सारे लोग मायूसी अनुभव कर रहे हैं, प्रतिभाशाली विज्ञान लेखक मैट रिडले यह आश्चर्यजनक दावा कर रहे हैं कि पिछला एक दशक सबसे अच्छे दशकों में से एक था. ‘‘हम ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें मानव जीवन के स्तर में इतिहास में सबसे बड़ा सुधार आया है,’’ वे ब्रिटिश पत्रिका द स्पेक्टेटर में लिखते हैं, ‘‘पहली बार दुनिया की केवल दस प्रतिशत आबादी अत्यधिक गरीबी के स्तर के नीचे है..बाल मृत्यु दर रिकार्ड निम्न स्तर पर है; अकाल वस्तुत: खत्म हो गए हैं; मलेरिया, पोलियो और हृदय रोगों में गिरावट आई है..’’
रिडले ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है. भारत में अत्यधिक गरीबी तेजी से घट रही है. यह 2012 के 22 प्रतिशत से घटकर वर्तमान में 5.5 प्रतिशत पर आ गई है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि भारत पिछले 17 सालों में औसतन 7 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रहा है, जो कि चीन के बाद सबसे तेज है. आम आदमी के जीवन में अन्य सकारात्मक संकेतक भी हैं. अनेक भारतीय महिलाएं चूल्हे के प्रदूषण से मुक्त हो चुकी हैं क्योंकि अब वे साफ गैस में खाना बनाती हैं.
अधिकांश भारतीय घरों में शौचालय हैं और अब वे खुले में शौच नहीं करते, जिससे उन्हें इससे होने वाले पर्यावरण प्रदूषण सहित अन्य स्वास्थ्य संबंधी खतरों से मुक्ति मिली है. अधिकांश भारतीय अपने गांवों से पक्की सड़कों से जुड़े हुए हैं, घरों में बिजली है और उनके पास बैंक खाता भी है, जिसके जरिये उन्हें प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण होता है.
लोगों के जीवन में चुपचाप होने वाले इन नाटकीय बदलावों की ओर हम ध्यान नहीं देते हैं, क्योंकि हमारे दिमाग को दैनंदिन जीवन की सुर्खियां ही घेरे रहती हैं और अच्छी खबरें सुर्खियां नहीं बनती हैं. इसके अलावा, हैन्स रोसलिंग की प्रभावशाली किताब फैक्टफुलनेस के अनुसार ऐसी मानवीय प्रवृत्तियां होती हैं जो दुनिया के बारे में हमारी धारणा को विकृत करती हैं.
उदाहरण के लिए, हम विकसित पश्चिम और विकासशील पूर्व के बीच विभाजित दुनिया में बड़े हुए हैं. यह अंतर करीब-करीब गायब हो गया है क्योंकि अधिकाधिक गैर पश्चिमी देश मध्यवर्गीय बन गए हैं. एक और गलती यह मानना है कि जनसंख्या वृद्धि हमें आसन्न कयामत की ओर ले जा रही है. तथ्य यह है कि पिछले 20 वर्षो के दौरान दुनिया (भारत समेत) की जनसंख्या वृद्धि दर में नाटकीय रूप से गिरावट आई है.
लेकिन पिछले दशक में ट्रम्प, पुतिन, शी, एदरेगान, मोदी, बोरिस जानसन जैसे राष्ट्रवादी नेताओं के उदय और आदर्शो के तेजी से क्षय के बारे में क्या कहें? जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषित कोई संस्था खतरे में हो तो कोई कैसे अच्छा महसूस कर सकता है? अति-राष्ट्रवाद के उदय ने दुनिया को अप्रत्याशित और खतरनाक बना दिया है. अपने देश की ही बात करें तो भारत की अर्थव्यवस्था नाटकीय रूप से धीमी हो गई है, हमारा वातावरण प्रदूषित हो रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक विवादास्पद सामाजिक एजेंडे के द्वारा विचलित हो रहे हैं जो देश की धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक नींव को जोखिम में डालता है.
देश भर के छात्र नागरिकता कानून का विरोध कर रहे हैं और नागरिकों में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर भय है. कश्मीर में पाबंदी पांच महीने बाद भी जारी है और वहां के कई नेता अभी भी हिरासत में हैं. क्या यह किसी को भी मायूस करने को पर्याप्त नहीं है?
इसका उत्तर यह है कि सरकार से इतर, बहुत सी चीजें ऐसी भी हो रही हैं जो दुनिया को रहने के लिए बेहतर बनाती हैं. वे वैज्ञानिक सफलताओं से उत्पन्न होती हैं और फिर बाजार की ताकतों द्वारा जल्दी से फैल जाती हैं. उदाहरण के लिए सेल फोन को ही ले लीजिए, जिसने अभूतपूर्व तरीके से दुनिया के गरीबों को सशक्त बनाया है. ब्रिटेन की प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका नेचर में हाल ही में एक रिपोर्ट छपी थी कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिये रेडियोलॉजिस्ट की तरह या उससे भी ज्यादा बेहतर तरीके से ब्रेस्ट कैंसर का पता लगाया जा सकता है.
‘द रैशनल आप्टिमिस्ट’ को पढ़ने के बाद मैंने रिडले को गंभीरता से लेना शुरू किया, जिसमें व्यापार और नवाचार का आकर्षक इतिहास दिया गया है. प्रतिभाशाली विज्ञान लेखक ने इसमें अपना ध्यान अर्थव्यवस्था पर केंद्रित किया है. भले ही बाजार में उनका विश्वास एकतरफा दिखता हो- मेरी तुलना में भी एकतरफा - उनकी दो प्रमुख अवधारणाएं, विनिमय से लाभ और विशेषज्ञता, महत्वपूर्ण आर्थिक विचारों में से हैं. एक अन्य विज्ञान लेखक स्टीफन पिंकर भी मेरे आशावाद की पुष्टि करते हैं. पिंकर तर्क देते हैं कि मानव भलाई के 15 विभिन्न पैमानों पर अधिकांश लोगों का जीवन बेहतर हो रहा है. लोग लंबा जीवन जी रहे हैं और पहले की अपेक्षा ज्यादा स्वस्थ रहते हैं. हमारा आतंकवाद का डर अतिरंजित है- उदाहरण के लिए एक अमेरिकी के आतंकवादी हमले की तुलना में दुर्घटना में मारे जाने की आशंका तीन हजार गुना ज्यादा रहती है. दोनों ही विज्ञान लेखक दुनिया में व्याप्त निराशावाद के खिलाफ ऊर्जा प्रदान करते हैं.
तो, क्या दुनिया बेहतर हो रही है? जाहिर है, अच्छी और बुरी चीजें चल रही हैं तथा संतुलित परिप्रेक्ष्य खोजना आसान नहीं है. पर्यावरण संकट भी उदास होने का कारण देता है और राजनीति में अति रूढ़िवाद का उदय भी. लेकिन मुझे लगता है कि हमारे देश के लाखों घरों में आम लोगों के जीवन में चुपचाप बदलाव आ रहा है. मैं राजनीतिक नेताओं और उनकी पार्टियों के बदलते भाग्य को नजरंदाज करना पसंद करता हूं और अंधेरे में खुशी से सीटी बजाता हूं. जैसा कि किसी ने कहा है, जब बारिश हो तो इंद्रधनुष देखिए और जब अंधेरा हो तो सितारों को देखकर खुश रहिए.