गिरीश्वर मिश्र का नजरियाः चुनाव में सुरक्षित रहे लोकतंत्र की मर्यादा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 15, 2019 10:21 AM2019-04-15T10:21:28+5:302019-04-15T10:21:28+5:30
शायद राजनेताओं को यह भ्रम है कि जनता अपरिपक्व है और वह राष्ट्रीय मुद्दों से कोई सरोकार नहीं रखती.
गिरीश्वर मिश्र
आज देश के सामने गरीबी, शिक्षा, स्त्रियों की स्थिति, सुरक्षा, कानून व्यवस्था, स्वास्थ्य, संस्कृति जैसे तमाम ऐसे अनेक गंभीर और ज्वलंत प्रश्न हैं जिन पर चर्चा और अपनी नीति को स्पष्ट करते हुए देश और समाज के भविष्य की योजना को जनता तक पहुंचाने का चुनावों के दौरान अच्छा मौका था. जनता इन सब प्रश्नों पर राजनीतिक दलों की राय जानना चाहती है. जनता का यह हक बनता है कि उसे इन सबके बारे में बताया जाए. परंतु शायद राजनेताओं को यह भ्रम है कि जनता अपरिपक्व है और वह राष्ट्रीय मुद्दों से कोई सरोकार नहीं रखती. या फिर यह भी संभव है कि राजनेताओं को स्वयं कोई जानकारी नहीं है और वे सार्थक चर्चा करने के लिए अक्षम हैं. पर यह सब छोड़ एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहना और उसके नए-नए अवसर ढूंढना ही आज के नेताओं का काम रह गया है.
जनसभाओं में नेताओं का व्यवहार बेहद असंतोषजनक हो रहा है. इन सबकी इतने व्यापक पैमाने पर और बार-बार टीवी व सोशल मीडिया पर जो प्रस्तुति हो रही है वह जनमानस पर नकारात्मक असर डाल रही है. पर वे शायद ही कभी सोचते हैं कि अपने भाषणों में वे जो कुछ भी जनता को दे रहे हैं, क्या वही जनता भी चाहती है? वे जनता तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं परंतु एकालाप की शैली में. वे संवाद की कोई चेष्टा नहीं करते. और तो और, चुनाव के मद्देनजर देश के हर क्षेत्न से अवैध रूप में इधर-उधर किए जा रहे कई सौ करोड़ रुपए और प्रचुर मात्ना में शराब आदि की जब्ती की घटनाएं नेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा मतदाता को प्रलोभन देने और रिझाने की योजनाओं का ही पर्दाफाश कर रही हैं. किसी भी कीमत पर सत्ता पाना ही सभी का एकमात्न उद्देश्य होता जा रहा है.
यह सारा घटनाक्रम घोर सामाजिक चिंता का विषय है. यह पूरे समाज के लिए बड़ा ही पीड़ादायी क्षण है, जब राष्ट्र का नेतृत्व करने के लिए स्वयं को अग्रसर करते तत्पर नेता लोग सामने खड़ी जनता को अपने विपक्षी के लिए अभद्र शब्दों का पहाड़ा पढ़ाते नजर आ रहे हैं. आज सारे के सारे दल अपने दल के लिए वोट इस आधार पर नहीं मांग रहे हैं कि वह दल अच्छा है बल्कि इसलिए मांग रहे हैं कि सामने वाला प्रत्याशी और पार्टी खराब है और उसमें दोष ही दोष भरे पड़े हैं. दूसरे पक्ष के हमले इतने प्रबल हो रहे हैं कि अब प्रत्याशी, प्रवक्ता या समर्थक अपनी पात्नता की बात भूल कर भी नहीं कर रहे, अपने दल के घोषणापत्न तक को भूल जा रहे हैं. उनका पूरा जोर सामने वाले की निंदा और उसको हीन साबित करने पर है. वे एक-दूसरे को कुपात्न साबित करने में ही अपनी सारी शक्ति झोंक दे रहे हैं. यहां तक कि शारीरिक हिंसा से भी बाज नहीं आ रहे. यह स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है. जरूरी है कि सभी दल अपने दायित्व का अनुभव करें और मर्यादा में रह कर ही अपनी बात सबके सामने रखें.