गिरीश्वर मिश्र का कॉलमः स्वतंत्रता के दायित्व भी कम नहीं हैं
By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 15, 2019 07:20 AM2019-08-15T07:20:39+5:302019-08-15T07:20:39+5:30
गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में कहें तो ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’. प्रतिबंध होने या हस्तक्षेप होने पर हमारे कर्तापन में विघ्न पड़ता है. ऐसी स्थिति में हम जो चाहते हैं और जैसा चाहते हैं वैसा नहीं कर पाते.
स्वतंत्रता सभी प्राणियों को प्रिय होती है. इसके विपरीत पराधीन होना तो ऐसी स्थिति होती है कि उसमें सपने में भी सुख नसीब नहीं होता. गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में कहें तो ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’. प्रतिबंध होने या हस्तक्षेप होने पर हमारे कर्तापन में विघ्न पड़ता है. ऐसी स्थिति में हम जो चाहते हैं और जैसा चाहते हैं वैसा नहीं कर पाते. इसलिए कोई बंधन नहीं चाहता है, क्योंकि उससे कार्य या आचरण की परिधि सीमित हो जाती है. पर थोड़ा विचार करने पर लगता है कि स्वतंत्र होने की भी शर्त होती है और निरपेक्ष रूप में स्वतंत्रता भ्रम ही होती है. सृष्टि की रचना ही ऐसी है कि उसके अंतर्गत विद्यमान विभिन्न स्तर एक दूसरे से जुड़े होते हैं. ग्रह, नक्षत्र और आकाशगंगाएं सभी एक दूसरे से जुड़े हैं. एक की स्थिति दूसरे की स्थिति पर निर्भर होती है. जैसे संगीत के लिए सुर और ताल के नियम मौजूद होने पर कर्णप्रिय माधुर्य आता है अन्यथा कोलाहल या शोर पैदा होने लगता है.
अत: तथ्य यही प्रतीत होता है कि किसी भी अस्तित्ववान इकाई का पूर्णत: स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है. कुछ भी घटित होने के लिए वियोग नहीं योग की जरूरत पड़ती है. जुड़ने का अर्थ है जो जुड़ रहे हैं उनकी अपनी अपनी स्वतंत्रता में कटौती. यह अवश्य संभव है कि वे मिल कर पहले से अधिक स्वतंत्रता का अनुभव कर सकें. जीवन की स्थितियां ही ऐसी होती हैं कि यदि स्वतंत्र होने से मुक्ति मिलती है तो मुक्ति के साथ खुद ब खुद जिम्मेदारी आ जाती है.
राजनैतिक स्वतंत्रता मिले सात दशक बीतने को आए. नागरिक के रूप में जिन मानकों के पालन की अपेक्षा थी उन पर हम पूरी तरह कामयाब नहीं दिखते. समता, समानता और अवसरों की उपलब्धता की दृष्टि से अभी लंबी दूरी तय करनी है. देश में स्वतंत्रता का भाव प्राय: उन्मुक्तता का हो रहा है जो गाहे बगाहे स्वच्छंदता का रूप ले लेती है. सामाजिक और नैतिक आचरण की दृष्टि से बहुत कुछ अशोभन हो रहा है. अपराधों के आंकड़े भयावह हो रहे हैं. समय-कुसमय हिंसा और आक्रोश का उबाल दिन प्रतिदिन जनजीवन को अस्त-व्यस्त करने वाला होता जा रहा है.
सामाजिक सहिष्णुता, साझेदारी और पारस्परिक भरोसे की दृष्टि से भी बहुत कुछ करने को शेष है. चारित्रिक बल पर ही कोई समाज आगे बढ़ता है. आज वैश्विकता, बाजार और भौतिक समृद्धि के प्रबल आकर्षण के आगोश में आते हुए हमारे मानवीय सरोकार दुर्बल होते जा रहे हैं. सामाजिक परिवर्तन की यह दिशा आत्ममंथन के लिए प्रेरित करती है. शिक्षा, मीडिया और सामाजिक आचरण में नैतिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए प्रयास अनिवार्य है और इसके लिए सरकारी और गैरसरकारी, राजनैतिक और गैरराजनैतिक हर तरह की कोशिश शुरू की जानी चाहिए. स्वतंत्रता दिवस इस दृष्टि से एक आर्थिक ही नहीं, नैतिक दृष्टि से भी सबल राष्ट्र के लिए संकल्प लेने का अवसर है.