स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का मंत्र देने वाले महानायक तिलक, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग
By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 1, 2020 06:01 PM2020-08-01T18:01:04+5:302020-08-01T18:01:51+5:30
ब्रिटिश सत्ता से मोह भंग के फलस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभ में इस युवा भारतीय ने अपने सहयोगियों के साथ राष्ट्र की अवधारणा को धार दी और समाज के मध्य वर्ग का समर्थन अर्जित किया. इन लोगों ने अपने प्रयासों से हीन भावना से मुक्त होकर बर्तानवी शासन से मुक्ति का खाका खींचा.
अंग्रेजी राज के खिलाफ आवाज उठाकर स्वराज्य (अपना राज) की स्थापना के लिए प्रभावी आंदोलन की नींव रखने वालों में महाराष्ट्र के वीर सपूत लोकमान्य तिलक अग्रगण्य हैं.
ब्रिटिश सत्ता से मोह भंग के फलस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभ में इस युवा भारतीय ने अपने सहयोगियों के साथ राष्ट्र की अवधारणा को धार दी और समाज के मध्य वर्ग का समर्थन अर्जित किया. इन लोगों ने अपने प्रयासों से हीन भावना से मुक्त होकर बर्तानवी शासन से मुक्ति का खाका खींचा.
स्वराज्य का स्वप्न साकार होता लगने लगा. अंग्रेजी सरकार का रुख इस तरह के राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध था और वे दमनात्मक रवैया अपना रहे थे. परंतु तिलक जैसे लोगों ने भारत के उज्ज्वल अतीत से प्रेरणा लेकर जन समाज में देश गौरव का भाव प्रस्तुत करते हुए ब्रिटिश परंपरा के प्रति आत्मसमर्पण की तीव्र आलोचना की.
स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए जरूरी राष्ट्रीय गर्व का भाव लाने के लिए अपनी परम्परा और इतिहास के महान क्षणों को स्मरण किया जाने लगा. यह सोच कर कि भारत की भावनात्मक और आध्यात्मिक चेतना की विशिष्टता ऊर्जा का काम करेगी. देश की आत्मा की पहचान वेद, सम्राट अशोक और चंद्रगुप्त, रानी लक्ष्मीबाई और स्वामी विवेकानंद के विचारों को लेकर वैचारिक प्राण फूंकने का प्रयास शुरू हुआ.
इस दृष्टि से महाराष्ट्र के अरब सागर के तटीय क्षेत्र रत्नागिरि में 1856 में जन्मे और पले-बढ़े बाल (केशव) गंगाधर तिलक द्वारा महाराष्ट्र में भारतीय सांस्कृतिक चेतना को प्रामाणिकता के साथ सजीव किया गया. गणित और संस्कृत के साथ स्नातक स्तर के अध्ययन के बाद उन्होंने कानून की शिक्षा ली परंतु व्यावसायिक जीवन शिक्षक के रूप में शुरू किया और पुणे की डेक्कन सोसाइटी द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया.
न्यू इंग्लिश स्कूल और फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना इसमें महत्वपूर्ण है. फिर सामाजिक सुधार और राजनीति की दिशा में कदम बढ़ाया और इतने लोकप्रिय हुए कि जनता ने उन्हें ‘लोकमान्य’ कहना शुरू कर दिया. लोकमान्य का यह दृढ़ विचार था कि अपने राजनीतिक अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष आवश्यक है.
राष्ट्र की चेतना के उन्मेष के लिए उन्होंने ‘विदेशी’ के बहिष्कार पर भी जोर दिया. उन दिनों स्वराज्य की मांग जोर पकड़ने लगी थी और यह महसूस किया जाने लगा था कि भारतीय संविधान इस देश की नहीं बल्किब्रिटिश संसद ने वहां की जनता की दृष्टि से बनाया था.
राज को उखाड़ फेंकने के लिए स्वदेशी आंदोलन में आत्मनिर्भरता और देश गौरव दोनों शामिल थे. तिलक ने जाति और धर्म को परे रखकर भारत देश को विचार के केंद्र में लाकर अपनी प्रतिभा और श्रम का निवेश करने के लिए आह्वान किया. यह करने में सबका कल्याण ही एकमात्र सरोकार था और देश का विचार ही जीवन-धर्म था. तिलक ने इस बात पर खास जोर दिया कि स्वदेशी द्वारा ही आर्थिक विकास संभव है और इसके लिए उत्सर्ग करना होगा. विदेशी चीजों को संकल्प के साथ दृढ़तापूर्वक छोड़ना होगा.
तिलक एक तेजस्वी नेता के रूप में भारतीय राजनीति के क्षितिज पर छा रहे थे. उनका सिंहनाद कि ‘स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’ सबके दिलो-दिमाग पर छाने लगा. सरकार ने उनके देशभक्ति के विचारों के लिए सजा भी दी. उन्हें छह वर्ष की जेल हुई. बर्मा (आज के म्यांमार) की मांडले जेल में रहते हुए तिलक ने दो महनीय ग्रंथों की रचना की ‘दि आर्कटिक होम इन दि वेदाज’ और ‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य’ नामक भगवद्गीता की टीका लिखी.
ज्योतिष की गणना और अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि वैदिक ऋषियों के पूर्वज हिमानी युग में उत्तर पूर्वी ध्रुव के क्षेत्र में रहते थे. उन्होंने इसमें सीमित स्वार्थ की जगह मोक्ष की व्यापक दृष्टि अपनाते हुए मनुष्य को संसार में कर्म में सम्पृक्त करने की प्रेरणा पर बल दिया.
उनकी यह व्याख्या लोक कल्याण के प्रति उन्मुखता को वांछित मानवीय दृष्टि के रूप में स्थापित करती है. लोकमान्य की कर्मठ देशभक्ति और स्वाध्याय की वृत्ति में आज के राजनेताओं के लिए भी बहुत कुछ ग्रहण करने लायक मौजूद है.
आज देश सुराज की कामना के साथ आत्मनिर्भर और स्वदेशी की ओर आगे बढ़ने का यत्न कर रहा है. ऐसे में लोकमान्य के विचार और कार्य प्रेरणादायी हैं. हमें वैसे ही दृढ़ संकल्प से कष्ट सह कर भी विदेशी के बहिष्कार व स्वदेशी के स्वागत का मनोभाव अपनाना होगा.