गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः जीवन-सौंदर्य के लिए चाहिए संस्कृति-संवर्धन

By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 8, 2022 12:05 PM2022-08-08T12:05:47+5:302022-08-08T12:06:27+5:30

संस्कृति को उन उदात्त जीवन मूल्यों के रूप में भी देखा जाता है जो आदर्श रूप में प्रतिष्ठित होते हैं और समाज की गतिविधि के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं। बहुआयामी संस्कृति की सत्ता उन अनेकानेक मूर्त और प्रतीकात्मक परंपराओं में रची-पगी विभिन्न रूपों में सामाजिक जीवन में उपस्थित रहती है।

Girishwar Mishra's blog Culture-enrichment is needed for life-beauty | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः जीवन-सौंदर्य के लिए चाहिए संस्कृति-संवर्धन

गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः जीवन-सौंदर्य के लिए चाहिए संस्कृति-संवर्धन

संस्कृति लोक-जीवन की सतत सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का पुंज होती है जिसका इतिहास, साहित्य, शिक्षा, विभिन्न कला रूपों, स्थापत्य, शिल्प तथा जीवन-शैली के साथ घनिष्ठ संबंध होता है। संस्कृति को उन उदात्त जीवन मूल्यों के रूप में भी देखा जाता है जो आदर्श रूप में प्रतिष्ठित होते हैं और समाज की गतिविधि के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं। बहुआयामी संस्कृति की सत्ता उन अनेकानेक मूर्त और प्रतीकात्मक परंपराओं में रची-पगी विभिन्न रूपों में सामाजिक जीवन में उपस्थित रहती है। वह वाचिक प्रथाओं और व्यवहारों के प्रत्यक्ष अभ्यासों के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रमित होते हुए आगे बढ़ती है। संस्कृति के सभी पक्षों में समय के साथ परिवर्तन भी अनिवार्य रूप से घटित होते हैं। दूसरी संस्कृति(यों) के साथ सहयोग और (या) संघर्ष की प्रवृत्ति वाले प्रभाव भी जन्म लेते हैं। उनको लेकर क्रिया प्रतिक्रया भी होती है। इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर आंतरिक और बाह्य प्रभावों के फलस्वरूप संस्कृति में उतार-चढ़ाव भी परिलक्षित होते हैं। संस्कृति-यात्रा के मार्ग में व्यवधान भी आते हैं, संस्कृति का रूपांतरण भी होता है, अंशत: क्षरण या लोप भी होता है। अपसंस्कृति की चुनौती भी आती है और सांस्कृतिक पुनराविष्कार तथा पुनर्जीवन भी होता है।

दूसरी संस्कृति(यों) के साथ संपर्क में आने पर उनके बीच होने वाला पारस्परिक संवाद और आदान-प्रदान कई प्रकार का होता है तथा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों की आवाजाही निरंतर बनी रहती है। कहना न होगा कि सांस्कृतिक संपर्क का वेग और आकार संचार, राजनैतिक रिश्तों और गमनागमन की सुविधाओं की उपलब्धता के साथ घटता-बढ़ता रहता है। आज के वैश्वीकरण के दौर में सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के चलते कई स्तरों पर सांस्कृतिक संचरण अप्रत्याशित रूप से प्रबल हो रहा है परंतु महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो श्रेयस्कर स्थिति यही है कि हम अपनी जमीन पर टिके रहें और घर की खिड़कियां खुली रहें ताकि बाहर की हवा आती-जाती तो रहे पर हम जड़ों से न उखड़ें। तभी संस्कृति की अनुकूलता और उर्वरता बनी रहती है। भारत में संस्कृति के स्वरूप, उसमें बदलाव और अपसंस्कृति के प्रश्न चर्चा के केंद्र में आ रहे हैं।

आज विश्व में प्रत्येक सचेत समाज अपनी संस्कृति को संजोने और समृद्ध करने के लिए यत्नशील देखा जा सकता है। संसार में हर जगह अपना सांस्कृतिक गौरव-बोध बनाए रखने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए जा रहे हैं और इस कार्य को मानवोपयोगी स्वीकार करते हुए वैश्विक स्तर पर यूनेस्को जैसी संस्था गठित की गई है जो सांस्कृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन के कार्य को अंजाम देती है। सभी देश अपने यहां की संस्कृति के विभिन्न पक्षों को लेकर नाना प्रकार के आयोजन करते रहते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि संस्कृति समाज के लिए स्मृति की भांति कार्य करती है जिसके बिना अपनी पहचान और अस्मिता का निर्माण कठिन चुनौती बन जाती है।

आज जब जलवायु परिवर्तन, विषाक्त आहार, वायु और जल के प्रदूषण की समस्याओं से सारा विश्व जूझ रहा है, ग्राम्य जगत की सांस्कृतिक परंपराएं प्रकृति के अनुकूल जीवन शैली के साथ प्रभावी विकल्प प्रस्तुत करती हैं। ऐसे में यहां की संस्कृति की विस्तृत अनमोल विरासत की रक्षा और संवर्धन समाज और सरकार दोनों का मानवीय दायित्व बन जाता है। इनका विस्मरण और हानि अपूरणीय क्षति होगी।

Web Title: Girishwar Mishra's blog Culture-enrichment is needed for life-beauty

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