गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: कोरोना की छाया के बीच अनुशासित हो होली का उल्लास

By गिरीश्वर मिश्र | Published: March 29, 2021 01:04 PM2021-03-29T13:04:54+5:302021-03-29T13:05:32+5:30

होली की बात अधूरी रहेगी यदि इस अवसर के व्यंजनों की बात न हो. भारतीय त्यौहार खास किस्म के व्यंजनों के साथ भी जुड़े होते हैं.  

Girishwar Mishra's blog: Be disciplined by Holi amidst the shadow of Corona | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: कोरोना की छाया के बीच अनुशासित हो होली का उल्लास

सांकेतिक तस्वीर (फाइल फोटो)

सौ साल में कभी ऐसी उठापटक  नहीं हुई थी जैसी कोरोना महामारी के चलते हुई. सब कुछ बेतरतीब और ठप सा होने लगा. एक लंबा खिंचा दु:स्वप्न जीवन की सच्चाई बन रहा है, ऐसे माहौल में होली का त्यौहार आया है, जिसे संयमित ढंग से मनाने की जरूरत है.

होली भावनाओं, संवेगों और रिश्तों को संजोने, सजाने और संवारने के अवसर के रूप में जीवन और साहित्य दोनों में उपस्थित रहा है. भारतीय संस्कृति के प्रतीक भावपुरुष श्रीकृष्ण और वरदायी शिव शम्भु दोनों ही होली के उल्लास, हास और विलास की कथाओं के महानायक हैं. श्रीकृष्ण और राधा माधुर्य के प्रतिमान हैं और उनके अछोर अथाह प्रेम की भावना ने लोक जीवन में स्थान बनाया है. ब्रज और बरसाने की लट्ठमार होली विश्वप्रसिद्ध है.  

अनेक कवियों ने अवध के राम और नंद गांव और बरसाने के कृष्ण कन्हैया की मधुर छवियों को केंद्र में रख मोहक रचनाएं की हैं.  श्रृंगार और प्रेम के रस में पगी राग रंग की इन दुर्लभ कविताओं का आकर्षण अभी भी काव्य-रसिकों की प्रिय पसंद बना हुआ है.

कृष्ण और गोपियों के प्रसंग तो विशेष रूप से स्मरण किए जाते हैं जिनमें कृष्ण को मन भर खूब छकाया जाता है और फिर आमंत्रित भी किया जाता है : नैन नचाइ कही मुसकाइ लला फिर आइयो खेलन होरी!

भारतीय जीवन समाज और परिवेश के बीच पलता बढ़ता है. यहां मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के सहचर हैं न कि प्रतिद्वंद्वी. इसलिए यहां का आदमी साल भर रंग बदलती प्रकृति के साथ संवाद भी करता चलता है. साथ ही हर उत्सव व्यक्ति को उसकी निजता की खोल (आवरण) से बाहर निकलने का अवसर उपस्थित करता है.

शायद व्यक्ति के अहंकार के विसर्जन के उपाय के रूप में भी उत्सवों को सामाजिक रूप दिया गया. इसलिए यहां के परंपरागत पर्व और त्यौहार जहां एक ओर ऋतुओं के साथ सामंजस्य बैठाते हैं तो दूसरी ओर लोक-जीवन को भी कई तरह से समृद्ध करते चलते हैं. होली भी आम और खास सबमें उन्मुक्त भाव से सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाला पर्व है.

आज जब अहंकार, घृणा और द्वेष फन काढ़ कर सामाजिक समरसता और शांति को चुनौती दे रहे हैं तो होली का पर्व उनसे उबरने का निमंत्नण दे रहा है क्योंकि जीवन की संभावना कटुता और तिक्तता में नहीं, सरसता में है.

होली वस्तुत: रस में भीगने-भिगाने का  एक महाउत्सव है जिसमें बड़े-छोटे, ऊंच-नीच, बाल-वृद्ध आदि का भेद भुला कर लोग एक दूसरे को गुदगुदाने, हंसने-हंसाने और रंगों से सराबोर करने की छूट ले लेते हैं.  होली का त्यौहार लोकतांत्रिक भाव-संवाद का अवसर देता है जिसमें जाति और वर्ग की सामाजिक सीमाएं टूटती हैं.

इस अवसर पर ङिाझक छोड़ लोगों के मन की गांठें भी खुलती हैं, दरारें पटती हैं और भाईचारे के रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं. इन सबमें एक तरह की सोशल इंजीनियरिंग की देसी युक्ति काम करती है.

होली की बात अधूरी रहेगी यदि इस अवसर के व्यंजनों की बात न हो. भारतीय त्यौहार खास किस्म के व्यंजनों के साथ भी जुड़े होते हैं.   दोपहर तक छक कर होली खेलने के बाद रंग छुड़ाने की कोशिश होती है और स्नान करने के बाद भूख भी लगी रहती है जिससे लोग रुचि लेकर भोजन करते हैं. फिर विश्रम के बाद नए या साफ-सुथरे वस्त्रों में लोग एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं.

सचमुच होली एक सम्पूर्ण त्यौहार है जिसमें व्यक्ति मिथ्या घेरों, घरौंदों और दायरों से बाहर निकलता है और आसपास के परिवेश को जानता पहचानता है.  ऐसा हो भी क्यों न, आखिर दीन-दुनिया से जुड़ कर ही तो जीवन सम्भव होता है.

दूसरों के लिए भी जगह होनी चाहिए  और उनके सुख-दुख को अपना सुख-दुख मानने से ही सामाजिक प्रगति सम्भव हो सकेगी. कोरोना की छाया में होली अधिक अनुशासित होने की मांग करती है.

Web Title: Girishwar Mishra's blog: Be disciplined by Holi amidst the shadow of Corona

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