गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: राजनीति की निर्मम उदासीनता का दौर
By गिरीश्वर मिश्र | Published: February 29, 2020 08:27 AM2020-02-29T08:27:09+5:302020-02-29T08:27:09+5:30
तीन महीनों से चल रहे आंदोलन और प्रदर्शन के दौर को सभी देखते रहे, पर वह ऐसा मोड़ लेगा, यह अप्रत्याशित था. इस पर जरूर आश्चर्य होता है कि सरकारी खुफिया महकमे को इसकी भनक तक नहीं थी या फिर वह सूचना की अनदेखी कर गया.
पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली के कुछ इलाकों में जिस तरह की हिंसा फैली और जानमाल को जो नुकसान पहुंचा उसकी भरपाई कर पाना संभव नहीं है. हत्या, आगजनी और आमजनों की मेहनत से बनी घर-गृहस्थी और कारोबार सबकुछ देखते-देखते दंगाइयों द्वारा तहस-नहस कर डाला गया. नागरिक जीवन के साथ ऐसे खतरनाक खिलवाड़ की छूट राजधानी में हो, यह शर्मनाक है. उस मंजर को देख हर कोई स्तब्ध है.
तीन महीनों से चल रहे आंदोलन और प्रदर्शन के दौर को सभी देखते रहे, पर वह ऐसा मोड़ लेगा, यह अप्रत्याशित था. इस पर जरूर आश्चर्य होता है कि सरकारी खुफिया महकमे को इसकी भनक तक नहीं थी या फिर वह सूचना की अनदेखी कर गया. उसकी चूक इस अर्थ में भी बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि समय रहते निरोधक कार्रवाई नहीं की जा सकी और प्रभावी कदम नहीं उठाए जा सके.
हैरानी की बात तो यह है कि पूरे घटनाक्र म के दौरान केंद्र और प्रदेश की सरकारें अधिकतर मूकदर्शक की तरह ही बनी रहीं और असामाजिक तत्वों को अपनी मनमानी करने की पूरी छूट मिल गई. आम जनता की नजर में यह सब प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से किंचित असामान्य और अस्वाभाविक सा लगता है.
जाहिरा तौर पर सरकारी रवैया दिल्ली के हंगामेदार चुनावी मुकाबले के बीच राजनैतिक हानि-लाभ के आकलन में ही उलझ गया. इस बीच जिस तरह एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते रहे वह शिष्टाचार की सभी हदें पार कर गया. इससे सामाजिक सौहाद्र्र भी बुरी तरह से प्रभावित हुआ. जनप्रतिनिधि इन सब में इस कदर उलझ कर रह गए कि समाज के हित की चिंता खिसक कर पृष्ठभूमि में चली गई. देखो और इंतजार करो की नीति अपनाने से आंदोलन और प्रदर्शन के जरिये जन-जीवन तबाह होता रहा और सिर्फ बयानबाजी के कुछ खास हाथ नहीं लगा.
सरकार की ओर से उदासीन रुख का क्या दुष्परिणाम हो सकता है, सब के सामने है. इतनी निर्ममता ठीक नहीं है. जनता की पीड़ा और दुख से दूर अभी भी सभी दल अपनी बढ़त और दूसरे की किरकिरी की जुगत में लगे हैं. अब सब कुछ न्यायालय के जिम्मे छोड़ दिया गया है कि वह निर्देश दे तो कुछ किया जाए. पर व्यापक घटनाओं और परिस्थितियों के बीच कितना त्वरित कानूनी हस्तक्षेप हो सकेगा और उसके क्या परिणाम होंगे नहीं कहा जा सकता. अंतत: सरकार को ही आगे आना होगा.
सरकार के लिए अपनी पार्टी जरूरी है पर सरकार बन जाने के बाद वह सिर्फ पार्टी की नहीं रह जाती. लोकतंत्न में सरकार सारी जनता की सरकार होती है. उसे सबकी चिंता करनी होती है. अपने राज-धर्म का पालन करना ही सरकार का पहला दायित्व है. दलगत राजनीति से ऊपर उठकर समस्याओं के समाधान ढूंढने की कोशिश की जानी चाहिए.