आर्थिक पैकेज: कोई उम्मीद नजर नहीं आती! पढ़े अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Published: May 20, 2020 02:19 PM2020-05-20T14:19:12+5:302020-05-20T14:19:12+5:30

पैकेज की प्रभावकारिता पर पहला शक तब होना शुरू हुआ जब वित्त मंत्री ने मीडिया के सामने गुजारे गए पांच से ज्यादा घंटों के दौरान यह बताने से लगातार परहेज किया कि ये बीस लाख करोड़ दरअसल आएंगे कहां से. क्या सरकार के पास कोई रिजर्व फंड है जिससे वह बड़ी धनराशि निकालेगी? क्या वह एलआईसी, पेंशन फंड, प्रॉविडेंट फंड या ऐसे ही किसी वित्तीय जरिये से यह धन प्राप्त करेगी? क्या उसने रिजर्व बैंक को नई मुद्रा छापने के लिए कहा है? और, अगर कहा है तो रिजर्व बैंक कितनी मुद्रा छापने वाला है?

Financial Package: There Is No Hope! Read Abhay Kumar Dubey Blog | आर्थिक पैकेज: कोई उम्मीद नजर नहीं आती! पढ़े अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। (फाइल फोटो)

बीस लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा के तुरंत बाद एनआईटीआई आयोग के उपाध्यक्ष ने सरकार की पीठ ठोंकते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री ने राजकोषीय परंपरानिष्ठता (राजकोषीय घाटे को किसी भी कीमत पर एक सीमा से आगे न बढ़ने देने का संकल्प) के आधार पर दी गई सलाहों को ठुकराते हुए यह रैडिकल फैसला लिया है- ताकि पूरी तरह से ठप पड़ी अर्थव्यवस्था को ‘किक-स्टार्ट’ किया जा सके, बाजार में नकदी आए और साथ-साथ कोरोना की मार से कराह रही गरीब जनता (विशेष तौर से प्रवासी मजदूर) के घावों पर मरहम लगाया जा सके. लेकिन तेरह से सत्रह मई के बीच में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पांच किस्तों में इस बीस लाख करोड़ के पैकेज का जो ब्यौरेवार वर्णन पेश किया- उसने बारह मई की सुखद अनुभूति को समाप्त कर दिया है.

पैकेज की प्रभावकारिता पर पहला शक तब होना शुरू हुआ जब वित्त मंत्री ने मीडिया के सामने गुजारे गए पांच से ज्यादा घंटों के दौरान यह बताने से लगातार परहेज किया कि ये बीस लाख करोड़ दरअसल आएंगे कहां से. क्या सरकार के पास कोई रिजर्व फंड है जिससे वह बड़ी धनराशि निकालेगी? क्या वह एलआईसी, पेंशन फंड, प्रॉविडेंट फंड या ऐसे ही किसी वित्तीय जरिये से यह धन प्राप्त करेगी? क्या उसने रिजर्व बैंक को नई मुद्रा छापने के लिए कहा है? और, अगर कहा है तो रिजर्व बैंक कितनी मुद्रा छापने वाला है? इन सवालों के जवाब वित्त मंत्री की तरफ से नहीं आए. दूसरे, समीक्षकों को और ज्यादा शक होना तब शुरू हुआ जब वित्त मंत्री द्वारा विभिन्न मदों में घोषित की जाने वाली रकमों का आंकड़ा उन्हीं मदों में किए गए बजट-प्रावधानों से मिलना शुरू हो गया. जब सवाल उठाए गए तो सरकार के प्रवक्ता कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए.

इसके अलावा सबसे ज्यादा विचलित करने वाली बात तो यह थी कि इस पैकेज का मानवीय आयाम बहुत कमजोर निकला. मसलन, सरकार ने प्रवासी मजदूरों के लिए साढ़े तीन हजार करोड़ की राहत घोषित की. यह रकम केवल देखने में ही बड़ी लगती है. चौदह करोड़ प्रवासी मजदूरों के लिहाज से एक मजदूर के हिस्से में केवल ढाई सौ रुपये आते हैं. जब इस तरह के सवाल उठाए गए तो सरकार का बचाव यह था कि हमने पहले ही बीस करोड़ महिलाओं के खाते में पांच-पांच सौ रुपये डाल दिए हैं.

सरकार की यह सफाई इतनी बोदी किस्म की थी कि इससे विपक्ष तो छोड़ ही दीजिए, कॉर्पोरेट जगत के लोगों में भी कोई भरोसा नहीं जगा. कोविड-राहत में एक हजार करोड़ से ज्यादा का योगदान करने वाले अजीम प्रेमजी ने सरकार से अपील की कि उसे हर तरह के गरीब को (चाहे वह कहीं रजिस्टर्ड हो या न हो, उसका खाता हो या न हो, उसके पास राशन कार्ड हो या न हो) को तीन महीने तक सात हजार रुपये प्रति माह देना चाहिए. इसी तरह टीवीएस के मुखिया श्रीनिवासन ने पांच-पांच हजार रुपये देने का सुझाव दिया. इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति भी इस तरह के सुझाव पहले ही दे चुके हैं.

नतीजा यह निकला कि वित्त मंत्री की पांचवीं प्रेस कांन्फ्रेंस होते-होते सरकार के प्रवक्ताओं का स्वर बदल गया. उनके राष्ट्रीय प्रवक्ता जफर इस्लाम ने तो यह तक कह दिया कि 12 मई को प्रधानमंत्री ने ‘स्टिमुलस’ पैकेज (अर्थव्यवस्था को तुरंत उछाल देने वाला) घोषित ही नहीं किया था. उन्होंने तो ‘इकोनॉमिक’ पैकेज शब्द का इस्तेमाल किया था.

प्रश्न यह है कि अगर इसे महज एक आर्थिक पैकेज माना जाए, तो भी क्या हमारे मौजूदा वक्त की कसौटियों पर खरा उतरता है? निष्पक्ष समीक्षकों की राय है कि इस पैकेज से अर्थव्यवस्था में ज्यादा से ज्यादा कुल घरेलू उत्पादन के एक से डेढ़ प्रतिशत की नई नकदी ही इंजेक्ट होगी. इसका इस्तेमाल भी उद्यमी धीरे-धीरे अगले चार साल में कर पाएंगे. यानी तुरंत प्रभाव से मिलने वाली राहत का पहलू इसमें केवल 0.25 प्रतिशत के आसपास ही है. अगर अर्थव्यवस्था के एक सिरे पर ‘सप्लाई’ होती है तो उसका दूसरा सिरा ‘डिमांड’ का होता है. सरकारी कदम सप्लाई वाले हिस्से को तो संबोधित करते लगते हैं, लेकिन डिमांड वाला हिस्सा तकरीबन अछूता छोड़ दिया गया है.

भारत की साठ फीसदी अर्थव्यवस्था निजी उपभोक्ताओं के दम पर चलती है. नौकरियां जाने, तनख्वाहों में कटौती होने और छोटे उद्योग-धंधे पूरी तरह से बंद हो जाने के कारण निजी उपभोग के लिए किसी भी तरह का प्रोत्साहन खत्म हो गया है. इसलिए पूरी अर्थव्यवस्था मांग के खत्म हो जाने से पीड़ित है. यह समस्या कोरोना के प्रकोप के पहले से चली आ रही है. पहले मांग कम थी. अब खत्म हो गई है. इस आर्थिक पैकेज में नए रोजगार पैदा करने के लिए भी कोई प्रावधान नहीं है. निचले आय वर्ग की खत्म हो चुकी आमदनी को सहारा देने की भी कोई व्यवस्था नहीं है. मध्य वर्ग इस पैकेज में अपने लिए कुछ न देख कर निराश होने के लिए मजबूर है. यह एक भीषण और भयानक स्थिति है. वरिष्ठ अर्थशास्त्री अरुण कुमार के मुताबिक युद्ध के दौरान भी ऐसा संकट नहीं आता है. जाहिर है कि सरकार ने राजकोषीय परंपरानिष्ठता से भी परे जाकर कंजूसी वाला रवैया अख्तियार किया है. इसके परिणाम हमारे भविष्य के लिए घातक हो सकते हैं.
 

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