परंपरा की शक्ति से हो सकती है आधुनिक राजनीति, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग
By अभय कुमार दुबे | Published: February 3, 2021 10:57 AM2021-02-03T10:57:38+5:302021-02-03T10:59:41+5:30
किसान आंदोलन तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहा है जिसके दायरे में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश के नकदी फसलें उगाने वाले किसान भी आ जाते हैं.
आधुनिक राजनीति की अहलकारी करने वाले समीक्षकों की आंखों के सामने अब स्पष्ट हो गया है कि परंपरा, समुदाय और धर्म से निकलने वाली ताकतों को गैर-धार्मिक और गैर-सामुदायिक उद्देश्यों के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
इस आंदोलन से पहले होता यह था कि समुदाय केवल अपने हितों के लिए होने वाले आंदोलनों में ही सक्रिय होते थे. इसका उदाहरण गूजरों द्वारा अक्सर किया जाने वाला वह आंदोलन है जिसमें वे अपने समुदाय को ओबीसी श्रेणी से हटा कर आदिवासी आरक्षण की श्रेणी में डालने की मांग करते हुए दिखते हैं.
इसी तरह महाराष्ट्र की सड़कों पर मराठाओं द्वारा निकाले गए विशाल मौन जुलूसों को भी देखा जा सकता है जिसमें वे अपने लिए आरक्षण की मांग करते हैं. इस रवैये से हटते हुए यह किसान आंदोलन तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहा है जिसके दायरे में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश के नकदी फसलें उगाने वाले किसान भी आ जाते हैं.
दूरदराज इलाकों से भी किसान दिल्ली की सीमाओं की तरफ कूच कर देंगे
अगर सरकार ने इस गतिरोध को जल्दी ही न तोड़ा तो हो सकता है कि फरवरी में सर्दी कम होते ही इन दूरदराज इलाकों से भी किसान दिल्ली की सीमाओं की तरफ कूच कर देंगे. लाल किले पर धार्मिक झंडा फहराए जाने से सरकार को लगने लगा था कि अब सारे पत्ते उसी के हाथों में आ गए हैं. इससे वह जोश में आ गई और गरम लोहे पर जोर की चोट मारने के चक्कर में उसने अपने आप को घायल कर लिया.
किसान नेता राकेश टिकैत और उनके साथी प्रशासन से बातचीत के दौरान अपनी गिरफ्तारियां देने के लिए तैयार हो गए थे. लेकिन तभी सीमाओं के इर्दगिर्द वाले इलाके से चुने गए दो भाजपा विधायकों ने अपने हथियारबंद समर्थकों के साथ आ कर परिस्थिति में हस्तक्षेप किया. ये लोग सरकारी पार्टी के तो थे, पर सरकार और प्रशासन के नुमाइंदे नहीं थे.
टिकैत ने मंच पर आकर हटने से इंकार कर दिया
बात बिगड़ गई. टिकैत ने मंच पर आकर हटने से इंकार कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि अगर वे गिरफ्तारी दे कर मौके से चले गए तो भाजपा के हथियारबंद लोग उपस्थित किसानों के साथ जम कर हिंसा करेंगे. इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास बन गया. भावावेश में बहे टिकैत के आंसुओं ने उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के जाट समुदाय की खाप-संरचनाओं को उत्तेजित कर दिया.
विशाल महापंचायतों का दौर चल निकला. जो किसान चले गए थे, वे तो वापस आ ही गए, नए किसानों ने भी आंदोलन की जगहों में अपनी मौजूदगी से ऊर्जा का संचार कर दिया. इस समय हालत यह है कि सरकार के हाथों में एक भी पत्ता नहीं रह गया है. उसके रणनीतिकार नहीं कह सकते कि अब यह आंदोलन कितने दिन और चलेगा.
सरकार अभी तक किसानों से सीधी बातचीत ही कर रही थी
जो सरकार अभी तक किसानों से सीधी बातचीत ही कर रही थी, उसे मजबूरन सर्वदलीय बैठक बुला कर समझौते की प्रक्रिया को और विस्तृत और समावेशी बनाना पड़ा है. अस्सी के दशक में राकेश टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत ने उत्तर प्रदेश की तत्कालीन वीरभद्र सिंह सरकार को अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था.
इसी तरह दिल्ली में राजीव गांधी की सरकार को भी उनकी मांगें माननी पड़ी थीं. टिकैत के किसान आंदोलनकारी जहां बैठ जाते थे, वहां से तब तक नहीं हटते थे जब तक उनकी बात मान न ली जाए. उस समय एक अखबार में एक शीर्षक छपा था- ‘टिके रहेंगे टिकैत’. यह शीर्षक हिंदी के अनुप्रास अलंकार का प्रयोग ही नहीं था, बल्कि इसमें सामुदायिक शक्ति से संपन्न एक समुदाय की लोकतांत्रिक जिद की अभिव्यक्ति भी थी.
खाप पंचायतों और सिख गुरुद्वारों की वह संगठन-शक्ति है
अगर राजधानी की सीमाओं पर चल रहे किसानों के धरने का विहंगम चित्र देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि इसके पीछे खाप पंचायतों और सिख गुरुद्वारों की वह संगठन-शक्ति है जिसके लिए यह समुदाय और धर्म परंपरागत रूप से जाना जाता है. अगर सरकार पानी बंद कर देगी, तो मेरे गांव से पानी आ जाएगा, यह दावा कोई तभी कर सकता है जिसे पता हो कि उसके पीछे कौन खड़ा है.
इसी तरह नौ बार विज्ञान भवन जा कर सरकार से बात करना और एक बार भी सरकार की चाय और खाने को स्वीकार न करना, हर बार गुरुद्वारे के लंगर से किसान नेताओं के लिए खाना आना भी ऐसा ही प्रतीक है. 26 से 28 जनवरी के बीच दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह किसान आंदोलन के बुनियादी चरित्र और मोदी सरकार द्वारा उसके प्रति अपनाए गए रवैये पर गहरे विचार-विमर्श की मांग करता है.
इस घटनाक्रम से निकल कर यह आया है कि अगर किसी आर्थिक मांगों वाले ‘सेक्युलर’ और गैर-धार्मिक आंदोलन के पीछे धर्म और समुदाय का समर्थन और शक्ति हो तो उसे सर्वशक्तिमान सरकार और उसके समर्थक मीडिया द्वारा भी हराना आसान नहीं होता. ऐसा आंदोलन प्रतिरोध की उन गोलबंदियों के मुकाबले अधिक टिकाऊ होता है जो किसानों-मजदूरों-कर्मचारियों-छात्रों - युवाओं-स्त्रियों-दलितों आदि के नाम पर अक्सर की जाती हैं.