किसानों के लिए क्यों जरूरी है न्यूनतम कीमत की गारंटी? अश्विनी महाजन का ब्लॉग
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: November 9, 2020 03:04 PM2020-11-09T15:04:59+5:302020-11-09T15:12:02+5:30
किसानों की यह मांग है कि कृषि वस्तुओं की खरीद सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न हो. गौरतलब है कि सरकार गेहूं, चावल, दाल सहित कई कृषि वस्तुओं की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करती है.
पिछले दिनों सरकार ने तीन कृषि बिलों के माध्यम से कृषि वस्तुओं की मार्केटिंग के कानूनों में व्यापक बदलाव किए. इसमें पूर्व की मंडी व्यवस्था के साथ-साथ मंडी से बाहर की खरीद और प्राइवेट मंडियों में खरीद की अनुमति से किसानों के बीच यह भय व्याप्त है कि अब कृषि वस्तुओं की खरीद करते हुए व्यापारी और कंपनियां किसान का शोषण कर सकते हैं.
ऐसे में किसानों की यह मांग है कि कृषि वस्तुओं की खरीद सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न हो. गौरतलब है कि सरकार गेहूं, चावल, दाल सहित कई कृषि वस्तुओं की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करती है. लेकिन यह भी सच है कि मात्र 6 प्रतिशत कृषि वस्तुओं की ही खरीद सरकार द्वारा होती है और अधिकांश कृषि वस्तुएं (लगभग 94 प्रतिशत) बाजार में ही बिकती हैं. इसलिए किसानों में यह भय व्याप्त है कि निजी व्यापारी और कंपनियां कार्टेल बनाकर किसान से सस्ते दामों पर कृषि वस्तुओं की खरीद कर सकते हैं.
किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के विरोधियों का यह कहना कि इससे महंगाई बढ़ सकती है और उसके कारण देश की कृषि उत्पादों के निर्यात में प्रतिस्पर्धा शक्ति कम हो जाएगी, सर्वथा गलत तर्क है. विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने समय-समय पर शोध के आधार पर यह स्थापित किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण महंगाई नहीं बढ़ती.
इस संबंध में 2016 में हुए प्रो. आर. आनंद के इकोनॉमैट्रिक शोध के अनुसार जब-जब खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि थोक मूल्य सूचकांक की तुलना में ज्यादा हुई, तब-तब किसानों द्वारा कीमत प्रोत्साहन के कारण उत्पादन बढ़ाया गया. इस शोध का यह मानना है कि अधिक समर्थन मूल्य से खाद्यान्नों की कीमत वृद्धि गैर खाद्य मुद्रास्फीति से कम होगी. इसी प्रकार के शोध परिणाम अन्य अर्थशास्त्रियों ने भी निकाले हैं. इसलिए यह कहना कि किसानों को ज्यादा मूल्य देने से महंगाई बढ़ती है, और उससे कृषि निर्यातों में देश की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति कम होती है, तर्कसंगत नहीं है.
वास्तव में यदि किसानों का उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते शोषण होता है और उन्हें कृषि कार्य करते हुए नुकसान का सामना करना पड़ता है तो उसका परिणाम देश की अर्थव्यवस्था के लिए कभी कल्याणकारी नहीं होगा. हम जानते हैं कि जब-जब देश में कृषि उत्पादन बाधित होता है, तब-तब कृषि जिंसों की कमी के चलते खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ती है. इसका प्रभाव यह होता है कि देश में जीवनयापन महंगा हो जाता है और उसके चलते मजदूरी दर बढ़ती है और अंततोगत्वा महंगाई और ज्यादा बढ़ जाती है.
महंगाई और ग्रोथ में प्रतिकूल संबंध होता है यानी महंगाई बढ़ती है तो ग्रोथ बाधित होता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के विरोधियों को यह समझना जरूरी है कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य न मिलना महंगाई का कारण बनता है. यदि उन्हें उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले तो महंगाई काबू में रहती है.
न्यूनतम समर्थन मूल्य के विरोधियों के अन्य तर्को में भी कोई दम नहीं है. उनका यह कहना है कि यदि व्यापारियों और कंपनियों को ज्यादा कीमत देनी पड़ेगी तो वे कृषि जिंसों का आयात करेंगे. समझना होगा कि भारत में कृषि व्यापार का विषय नहीं बल्कि जीवनयापन और संस्कृति है. किसानों के कल्याण से ही देश कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर रह सकता है. इसलिए अंतरराष्ट्रीय कीमतें कम होने पर आयात करने की बजाय आयातों पर ज्यादा आयात शुल्क और अन्य प्रकार से रोक लगाना ज्यादा कारगर उपाय है.
विरोधियों का यह तर्क कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से देश की कृषि कम प्रतिस्पर्धात्मक हो जाती है, सर्वथा गलत है. हम जानते हैं कि देश से सबसे ज्यादा निर्यात होने वाली कृषि जिंस चावल है, जिसके उत्पादन को दशकों से उचित समर्थन मूल्य देकर प्रोत्साहित किया गया.
वर्षों से दालों के क्षेत्र में भारत विदेशों पर इसलिए निर्भर रहा क्योंकि किसानों को दालों का उचित मूल्य न मिलने के कारण दालों का उत्पादन कम होता था. पिछले लगभग 4-5 वर्षो से जब से दालों के लिए सरकार ने ऊंचा समर्थन मूल्य घोषित करना प्रारंभ किया, देश में दालों का उत्पादन डेढ़ गुना से भी ज्यादा हो गया और देश की विदेशों पर निर्भरता बहुत कम रह गई.