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Farmers crisis: मंत्री शिवराज सिंह चौहान की राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ ने क्यों की खिंचाई?

By हरीश गुप्ता | Published: December 12, 2024 5:19 AM

हरियाणा और महाराष्ट्र में बड़ी जीत से भाजपा नए सिरे से उभरी है. इससे दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी(आप) बेहद चिंतित नजर आ रही है.

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ठळक मुद्देलोगों का कहना है कि हरियाणा में भाजपा की बड़ी जीत में एक छिपा हुआ हाथ था. अभय चौटाला और मायावती ने भी यही खेल खेलने के लिए अपने उम्मीदवार खड़े किए.2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हराया है.

Farmers crisis: राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ एक चतुर राजनीतिक हैं. उन्होंने कड़ी मेहनत और बुद्धिमत्ता के बल पर यह पद पाया है. पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनने के बाद उन्होंने भले ही राजनीति छोड़ दी हो, लेकिन कोलकाता हो या नई दिल्ली-वह हमेशा चर्चा में रहे हैं. विपक्ष ने भले ही उनके खिलाफ अभी अविश्वास प्रस्ताव लाया हो, लेकिन तकनीकी कारणों से इस पर 2025 में संसद के बजट सत्र में ही विचार हो सकता है. इस विवाद के शुरू होने से पहले जगदीप धनखड़ ने पिछले मंगलवार को मुंबई में एक कार्यक्रम में केंद्रीय कृषि और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान की सार्वजनिक रूप से खिंचाई करके राजनीतिक पर्यवेक्षकों को चौंका दिया. धनखड़ ने कहा कि किसान संकट में हैं, क्योंकि उन्हें अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है.

उन्होंने कार्यक्रम में मौजूद चौहान से पूछा कि किसानों को दिए गए आश्वासन क्यों नहीं पूरे किए गए. शिवराज चुप रहे. तीन दिन बाद राज्यसभा में कांग्रेस ने सरकार से पूछा कि क्या उसने किसानों की दुर्दशा के बारे में उपराष्ट्रपति की चिंताओं का संज्ञान लिया है? इस पर चौहान के जवाब देने से पहले, धनखड़ ने यह कहते हुए अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी कि वह महिलाओं के लिए लोकप्रिय योजना लाने वाले मंत्री से अपनी अपेक्षाएं व्यक्त कर रहे थे. ‘मंत्री वहां मेरे साथ थे. मैंने किसानों को आश्वासन दिया कि लाड़ली बहना योजना लाने वाला मंत्री किसानों का लाड़ला बेटा बनेगा.

मुझे उम्मीद है कि मंत्री इस योजना को साकार करेंगे. मैं आपको ‘किसानों के लाड़ले’ नाम दे रहा हूं,’धनखड़ ने कहा. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के पर्यवेक्षकों का मानना है कि राजनीति में बिना वजह कुछ नहीं कहा जाता. यह अलग बात है कि धनखड़ ने तीन दिन इस विषय पर चुप्पी साध ली. उन्हें सत्ता के बहुत करीब और संकटमोचक माना जाता है.

कई लोगों का कहना है कि हरियाणा में भाजपा की बड़ी जीत में एक छिपा हुआ हाथ था. अकालियों को भाजपा की मदद करने के लिए चुनिंदा निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार खड़े करने के लिए राजी किया गया, जबकि अभय चौटाला और मायावती ने भी यही खेल खेलने के लिए अपने उम्मीदवार खड़े किए.

केजरीवाल सुरक्षित ठिकाने की तलाश में

हरियाणा और महाराष्ट्र में बड़ी जीत से भाजपा नए सिरे से उभरी है. इससे दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी(आप) बेहद चिंतित नजर आ रही है. ‘आप’ ग्यारह साल से सत्ता में है. इसने 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हराया है. लेकिन इस समय ‘आप’ खेमे में चिंता के बादल मंडरा रहे हैं.

ऐसी खबरें हैं कि ‘आप’ संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपनी पारंपरिक नई दिल्ली सीट से हटने की योजना बना रहे हैं. जिस तरह से वह भाजपा और कांग्रेस से आए दल-बदलुओं को सीटें दे रहे हैं, उससे संकेत मिलता है कि पार्टी सकते में है. इसने अब तक घोषित 31 उम्मीदवारों में से 16 मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया है, जबकि 21 दलबदलुओं को टिकट देकर उपकृत किया है.

गौरतलब है कि ‘आप’ नेतृत्व ने अपने वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया और पूर्व मंत्री राखी बिड़ला की सीट भी बदल दी है. तीन चुनावों के बाद अब निर्वाचन क्षेत्रों की अदला-बदली से पता चलता है कि पार्टी को फीडबैक मिल गया है कि कुछ हद तक उसने राजनीतिक जमीन खोई है. वैसे, 2013 से लगातार तीन जीत के बाद सत्ता-विरोधी लहर से भी इंकार नहीं किया जा सकता.

भाजपा-अकाली दल फिर साथ-साथ!

पूर्व मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की हत्या की नाकाम कोशिश से अकाली दल और भाजपा के फिर साथ आने के रास्ते खोल दिए हैं. साफ संकेत मिल रहे हैं कि पंजाब में बादल के नेतृत्व वाले अकाली दल को कट्टरपंथी अपने नेता के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. उधर, ‘आप’ का ग्राफ गिर रहा है और कांग्रेस भी अपना घर नहीं संभाल पा रही है.

जबकि अकालियों के बिना भाजपा का इस राज्य में अस्तित्व समाप्तप्राय ही है. अकाली दल को भी अकेले रहकर अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. हत्या की कोशिश ने बादल परिवार के पक्ष में सहानुभूति की लहर पैदा कर दी है. भाजपा ने मौके को भांप लिया है और बादल परिवार को संकेत दिया है कि अब अतीत को भूलना ठीक होगा.

अकाली दल ने 1996 से अब तक एक लंबा सफर तय किया है. और 1997 में भाजपा से हाथ मिलाकर पंजाब में पहली गठबंधन सरकार बनाई. सितंबर 2020 में भाजपा अकालियों से अलग हो गई. उसने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने संबंधी अकालियों की मांग मानने इनकार कर दिया, जिसके बाद हरसिमरत कौर बादल ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया.

बाद में सरकार को इन विधेयकों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. भाजपा ने 2022 में पंजाब में विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ा और उसे केवल 2 सीटें और 6.6 प्रतिशत वोट मिले. अकालियों ने केवल तीन सीटें जीतीं और उन्हें 18.38 प्रश वोट मिले. 117 सीटों वाले सदन में 92 सीटें जीतकर ‘आप’ सत्ता में आई और उसे 42 प्रश वोट मिले.

2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान पंजाब में कांग्रेस का उदय हुआ जिसने 26.30 प्रश वोटों के साथ सात सीटें जीत लीं. भाजपा के खराब प्रदर्शन ने उसे अकालियों से फिर से जुड़ने के लिए मजबूर किया. अकालियों के पास भी विकल्प नहीं हैं. और, लगता है कि एक बार फिर गठबंधन की दिशा में सक्रिय होने का समय आ गया है.

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